शनिवार, 3 नवंबर 2012

हिन्द की पहचान है


                   
 हिन्द की पहचान है
विश्व की पावन धरा पर, हिन्द की पहचान है |
पूर्ण भाषा ज्ञान में, हिन्दी गज़ब की शान  है |
है सम्मिश्रण बोलियों का, हिन्द में मौजूद जो,
हर पड़ोसी देश - भाषा  का  इसे, संज्ञान है |
है सरल इतनी कि सीखो,चार दिन में अद्यतन,
संसार के भाषाजगत में,सबसे यह आसान है |
विश्व की बोली कहीं की, ये  लिखे   स्पष्टतः,
क्या जगत की कोई भाषा?इस कदर गुणवान है|
जो लिखा,वह ही पढा जाता है इसमे जब पढो,
स्पष्ट है सब कुछ,नहीं इसमें कहीं अनुमान है |
बोलियों में सबसे मीठी,बात में कितनी सरल,
हर कहीं भी बात हो,अच्छा नहीं यदि ज्ञान है|
गोद में इसकी पली, पल   कर  जवां उर्दू हुई,
आज इसके संग उर्दू,  इस चमन की शान है |
सौ से ज्यादा देश में,समझीपढ़ी जाती है ये,
'राज'  अपने  देश के, कुछ  क्षेत्र में अंजान है |

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012


                         
  खटीमा में
              उत्तराखण्ड में बाल साहित्य का इतिहास,दशा और दिशा
                  विषय पर उच्चस्तरीय सेमिनार
         स्थानीय प्रतिष्ठित शिक्षा भारती सीनियर सैकेण्डरी स्कूल के वृहद हाल में इक्कीस -
अक्टूबर,2012 को एक उच्चस्तरीय सेमिनार "उत्तराखण्ड में बाल साहित्य का इतिहास दशा और
दिशा"विषय पर (एक दिवसीय परिचर्चा) का आयोजन "उत्तराखण्ड बालकल्याण एंव बाल साहित्य
शोध संस्थान खटीमा के तत्वावधान में किया गया |
                 आयोजन को चार सत्रों में बांटा गया था | प्रथम सत्र औपचारिक उदघाटन सत्र था,
सत्र की अध्यक्षता राज.पी जी कालेज पौड़ी के प्राचार्य डा.सुभाषवर्मा ने की | सत्र के मुख्यअतिथि
स्थानीय विधायक नानक मत्ता, डा.प्रेम सिंह राना थे | विशिष्ट अतिथि के रूप में संस्था के
संरक्षक हरीश चन्द्र पाण्डेय चेयर पर्सन शिक्षा भारती संस्थान,प्रख्यात शिक्षाविद पूर्व उपनिदेशक
उच्चशिक्षा एल डी भट्ट,खटीमा व्यापारमण्डल के युवाअध्यक्ष अरूण सक्सेना तथा अल्मोड़ा अरबन
बैंक के शाखा प्रबन्धक दिग्विजय सिंह थे | समस्त सम्मानित अतिथियों ने इस प्रकार के प्रथम
सेमिनार को आयोजित करने के लिये संरक्षक मण्डल तथा संस्था के पदाधिकारियों की भूरि-भ्रूरि
प्रशंसा करते हुए पुनः-पुनः पुनरावृति की आवश्यकता पर बल दिया | सत्र का संचालन संस्था के
मुख्य कार्यकारी अधिकारी डा.राज सक्सेना ने किया |धन्यवादज्ञापन सचिव रमेशचौहान ने किया |
                      अगला सत्र चर्चा सत्र था जिसकी अध्यक्षता बाल वाटिका के स.सम्पादक डा.
भैंरू लाल गर्ग को करना थी किन्तु अपरिहार्य कारणों से आपका आगमन सम्भव न हो पाने
के कारण सत्र की अध्यक्षता स्थानीय राज.पी जी कालेज के प्राचार्य डा. हरिओमप्रकाश सिंह द्वारा
की गई | मुख्य अतिथि कुमांऊ विश्वविद्यालय के डीन तथा निदेशक,महादेवी वर्मा सृजन पीठ
रामगढ थे | विशिष्ट अतिथि के रूप में मंच पर संस्था की संरक्षक एंव नोजगे पबलिक स्कूल
सीनियर सैकेण्डरी स्कूल की चेयर पर्सन सुरिन्दर कौर दत्ता,उदय किरौला-सम्पादक बाल प्रहरी,
सुप्रसिद्ध कवियित्री नीलिमा श्रीवास्तव तथा युवाहस्ताक्षर का प्रतिनिधित्व कर रही अ.प्रोफेसर
अल्मोड़ा परिसर डा.मेघा भारती सुप्रसिद्ध गजलकार तथा मंच संचालक के आसीन होने के पश्-
चात विशेष रूप से बीज वक्तव्य के लिये हल्द्वानी राज.पी जी कालेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष -
तथा सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा. प्रभापन्त को आमंत्रित किया गया  | उनके वक्तव्य से
पूर्व संस्था के इतिहास तथा उसकी गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया संस्था के सी
ई ओ डा. राज सक्सेना ने | अपने बीज भाषण को अपनी सम्मोहक आवाज और सटीक -
प्रस्तुति के माध्यम से डा.प्रभा पन्त ने उत्तराखण्ड के बालसाहित्य के इतिहास पर विस्तृत -
प्रकाश डालते हुए वर्तमान दशा की बिन्दुवार व्याख्या की तथा बाल साहित्य के भविष्य को
उज्जवल बनाने के लिए उसे दिशा प्रदान करने के लिये बहुमूल्य सुझावों का प्रस्तुतिकरण भी
किया | बीच-बीच में जोरदार तालियों से चयनित विद्वान श्रोताओं ने मुख्य वक्ता के बीजभा-
षण की प्रशंसा की | अपने स्वागत भाषण में संस्था की संरक्षक सुरिन्दर कौर ने स्वागत के
साथ बाल साहित्य की आवश्यकताओं की भी विशद विवेचना की | उदय किरौला सम्पादक -
बाल प्रहरी ने अपने भाषण में वर्तमान बाल साहित्य की व्याधियों और उनके उन्मूलन पर -
विशेष बल देते हुए चर्चा विषय की विस्तृत विवेचना के साथ सामायिक प्रसंगों का भी चिन्ही-
करण किया | नीलिमा श्रीवास्तव ने भी बाल साहित्य की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की |मुख्य
अतिथि डा.डी.एस.पोखरिया ने अपनी ख्याति और विद्वत्ता के समरूप विषय को सरल भाषा और
अकाट्य तर्कों के माध्यम से इस चर्चा में विशेष रूप से उन्हें सुनने आए बच्चों के अन्त-
मनों तक अपने भाव पंहुचाए | विद्वान प्राचार्य डा.सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण को तर्कों -
और संतुलित विवेचना के माध्यम से समरूपता प्रदान की | सत्र का संचालन अत्यन्त ओज-
स्वी और सारगर्भित शैली में संस्था की संरक्षक डा. सुनीता चुफाल रतूड़ी ने किया |
               सत्रावसान के समय धन्यवाद प्रदर्शन संस्था के कोषाध्यक्ष के.सी.जोशी ने किया |
         तृतीय सत्र समापन एवं सम्मान समारोह सत्र था | सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध
दोहा,हायकू और बाल साहित्यकार के रूप में स्थापित डा.राम निवास मानव ने की | मुख्य
अतिथि के रूप में मंच पर आसीन थे युवा हृदय सम्राट साहित्य के क्षेत्र में नव स्थापित हस्ता-
क्षर विधायक खटीमा पुष्कर सिंह धामी | मंचासीन विशिष्ट अतिथि थे संस्था के संरक्षक  -
सुदर्शन वर्मा, नवयुवक साहित्यकार उद्योगपति वरूण अग्रवाल, इस विशेष समारोह में श्रेष्ट -
नागरिक शिरोमणि सम्मान से सम्मानित किये जाने वाले कै.ठाकुर सिंह खाती और नेपाल से
पधारे नेपाली पत्रिका पल्लव के सम्पादक लक्ष्मी दत्त भट्ट | इस अवसर पर सुप्रसिद्ध शिक्षा-
विद डा.डी एस पोखरिया के साथ,डा.सुभाष वर्मा,डा.पी एस राना विधायक,संरक्षक हरीश -
चन्द्र पाण्डेय,डा.प्रभा पन्त,डा.राम निवास मानव,विधायक पुष्कर सिंह धामी,उदय किरौला,
नीलिमा श्रीवास्तव,डा.मेघा भारती तथा नेपाल से पधारे लक्ष्मी दत्त भट्ट को सम्मानित किया
गया | साथ ही तीन स्थानीय साहित्यकारों डा.सिद्धेश्वर सिंह,रावेन्द्र कुमार रवि और वरूण-
अग्रवाल को भी सम्मानित किया गया | कै.ठाकुर सिंह खाती को उनकी सामाजिक और सां-
स्कृति असाधारण सेवाओं के लिये श्रेष्ट नागरिक शिरोमणि सम्मान से विभूषित किया गया |
अपने औपचारिक भाषणों में समस्त मंचासीन अतिथियों ने बाल साहित्य की दशा और दिशा
का विवेचन किया | सत्र का संचालन डा.राज सक्सेना और डा.सुनीता चुफाल रतूड़ी ने किया  |
श्राफ पब्लिक स्कूल की प्रखरप्रवक्ता अंजू भट्ट ने समस्त अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापने किया |
                         अन्तिम चतुर्थ सत्र में उपस्थित कविगणों की कविसंगोष्ठी का आयोजन किया
गया | संगोष्ठी की अध्यक्षता रावेन्द्र कुमार रवि ने की तथा मुख्य अतिथि पुष्कर सिंह धामी
थे |विशिष्ट अतिथि आमन्त्रित कवि डा.रामनिवास मानव,डा.प्रभापन्त,वरूण  अग्रवाल,पु
ष्कर सिहं धामी,नीलिमा श्रीवास्तव, डा.राज सक्सेना और नेपाल से पधारे लक्ष्मीदत्त भट्ट ने
कविता पाठ किया रावेन्द्र रवि ने अन्त में सुन्दर कविताएं सुनाईं  | कविगोष्ठी का सफल
संचालन डा.-सुभाष वर्मा ने किया | अंत में राज सक्सेना ने समस्त आमंत्रितों का धन्यवाद
देते हुए उपस्थित विद्वदजनों को अपनी दो पंक्तियां समर्पित कीं -
          इस शहर के नाम से लोगों ने जाना है हमें,
          अब हमारे नाम से जानेंगे इसको लोग सब |
                                                 


                            खटीमा में
              उत्तराखण्ड में बाल साहित्य का इतिहास,दशा और दिशा
                  विषय पर उच्चस्तरीय सेमिनार
         स्थानीय प्रतिष्ठित शिक्षा भारती सीनियर सैकेण्डरी स्कूल के वृहद हाल में इक्कीस -
अक्टूबर,2012 को एक उच्चस्तरीय सेमिनार "उत्तराखण्ड में बाल साहित्य का इतिहास दशा और
दिशा"विषय पर (एक दिवसीय परिचर्चा) का आयोजन "उत्तराखण्ड बालकल्याण एंव बाल साहित्य
शोध संस्थान खटीमा के तत्वावधान में किया गया |
                 आयोजन को चार सत्रों में बांटा गया था | प्रथम सत्र औपचारिक उदघाटन सत्र था,
सत्र की अध्यक्षता राज.पी जी कालेज पौड़ी के प्राचार्य डा.सुभाषवर्मा ने की | सत्र के मुख्यअतिथि
स्थानीय विधायक नानक मत्ता, डा.प्रेम सिंह राना थे | विशिष्ट अतिथि के रूप में संस्था के
संरक्षक हरीश चन्द्र पाण्डेय चेयर पर्सन शिक्षा भारती संस्थान,प्रख्यात शिक्षाविद पूर्व उपनिदेशक
उच्चशिक्षा एल डी भट्ट,खटीमा व्यापारमण्डल के युवाअध्यक्ष अरूण सक्सेना तथा अल्मोड़ा अरबन
बैंक के शाखा प्रबन्धक दिग्विजय सिंह थे | समस्त सम्मानित अतिथियों ने इस प्रकार के प्रथम
सेमिनार को आयोजित करने के लिये संरक्षक मण्डल तथा संस्था के पदाधिकारियों की भूरि-भ्रूरि
प्रशंसा करते हुए पुनः-पुनः पुनरावृति की आवश्यकता पर बल दिया | सत्र का संचालन संस्था के
मुख्य कार्यकारी अधिकारी डा.राज सक्सेना ने किया |धन्यवादज्ञापन सचिव रमेशचौहान ने किया |
                      अगला सत्र चर्चा सत्र था जिसकी अध्यक्षता बाल वाटिका के स.सम्पादक डा.
भैंरू लाल गर्ग को करना थी किन्तु अपरिहार्य कारणों से आपका आगमन सम्भव न हो पाने
के कारण सत्र की अध्यक्षता स्थानीय राज.पी जी कालेज के प्राचार्य डा. हरिओमप्रकाश सिंह द्वारा
की गई | मुख्य अतिथि कुमांऊ विश्वविद्यालय के डीन तथा निदेशक,महादेवी वर्मा सृजन पीठ
रामगढ थे | विशिष्ट अतिथि के रूप में मंच पर संस्था की संरक्षक एंव नोजगे पबलिक स्कूल
सीनियर सैकेण्डरी स्कूल की चेयर पर्सन सुरिन्दर कौर दत्ता,उदय किरौला-सम्पादक बाल प्रहरी,
सुप्रसिद्ध कवियित्री नीलिमा श्रीवास्तव तथा युवाहस्ताक्षर का प्रतिनिधित्व कर रही अ.प्रोफेसर
अल्मोड़ा परिसर डा.मेघा भारती सुप्रसिद्ध गजलकार तथा मंच संचालक के आसीन होने के पश्-
चात विशेष रूप से बीज वक्तव्य के लिये हल्द्वानी राज.पी जी कालेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष -
तथा सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा. प्रभापन्त को आमंत्रित किया गया  | उनके वक्तव्य से
पूर्व संस्था के इतिहास तथा उसकी गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया संस्था के सी
ई ओ डा. राज सक्सेना ने | अपने बीज भाषण को अपनी सम्मोहक आवाज और सटीक -
प्रस्तुति के माध्यम से डा.प्रभा पन्त ने उत्तराखण्ड के बालसाहित्य के इतिहास पर विस्तृत -
प्रकाश डालते हुए वर्तमान दशा की बिन्दुवार व्याख्या की तथा बाल साहित्य के भविष्य को
उज्जवल बनाने के लिए उसे दिशा प्रदान करने के लिये बहुमूल्य सुझावों का प्रस्तुतिकरण भी
किया | बीच-बीच में जोरदार तालियों से चयनित विद्वान श्रोताओं ने मुख्य वक्ता के बीजभा-
षण की प्रशंसा की | अपने स्वागत भाषण में संस्था की संरक्षक सुरिन्दर कौर ने स्वागत के
साथ बाल साहित्य की आवश्यकताओं की भी विशद विवेचना की | उदय किरौला सम्पादक -
बाल प्रहरी ने अपने भाषण में वर्तमान बाल साहित्य की व्याधियों और उनके उन्मूलन पर -
विशेष बल देते हुए चर्चा विषय की विस्तृत विवेचना के साथ सामायिक प्रसंगों का भी चिन्ही-
करण किया | नीलिमा श्रीवास्तव ने भी बाल साहित्य की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की |मुख्य
अतिथि डा.डी.एस.पोखरिया ने अपनी ख्याति और विद्वत्ता के समरूप विषय को सरल भाषा और
अकाट्य तर्कों के माध्यम से इस चर्चा में विशेष रूप से उन्हें सुनने आए बच्चों के अन्त-
मनों तक अपने भाव पंहुचाए | विद्वान प्राचार्य डा.सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण को तर्कों -
और संतुलित विवेचना के माध्यम से समरूपता प्रदान की | सत्र का संचालन अत्यन्त ओज-
स्वी और सारगर्भित शैली में संस्था की संरक्षक डा. सुनीता चुफाल रतूड़ी ने किया |
               सत्रावसान के समय धन्यवाद प्रदर्शन संस्था के कोषाध्यक्ष के.सी.जोशी ने किया |
         तृतीय सत्र समापन एवं सम्मान समारोह सत्र था | सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध
दोहा,हायकू और बाल साहित्यकार के रूप में स्थापित डा.राम निवास मानव ने की | मुख्य
अतिथि के रूप में मंच पर आसीन थे युवा हृदय सम्राट साहित्य के क्षेत्र में नव स्थापित हस्ता-
क्षर विधायक खटीमा पुष्कर सिंह धामी | मंचासीन विशिष्ट अतिथि थे संस्था के संरक्षक  -
सुदर्शन वर्मा, नवयुवक साहित्यकार उद्योगपति वरूण अग्रवाल, इस विशेष समारोह में श्रेष्ट -
नागरिक शिरोमणि सम्मान से सम्मानित किये जाने वाले कै.ठाकुर सिंह खाती और नेपाल से
पधारे नेपाली पत्रिका पल्लव के सम्पादक लक्ष्मी दत्त भट्ट | इस अवसर पर सुप्रसिद्ध शिक्षा-
विद डा.डी एस पोखरिया के साथ,डा.सुभाष वर्मा,डा.पी एस राना विधायक,संरक्षक हरीश -
चन्द्र पाण्डेय,डा.प्रभा पन्त,डा.राम निवास मानव,विधायक पुष्कर सिंह धामी,उदय किरौला,
नीलिमा श्रीवास्तव,डा.मेघा भारती तथा नेपाल से पधारे लक्ष्मी दत्त भट्ट को सम्मानित किया
गया | साथ ही तीन स्थानीय साहित्यकारों डा.सिद्धेश्वर सिंह,रावेन्द्र कुमार रवि और वरूण-
अग्रवाल को भी सम्मानित किया गया | कै.ठाकुर सिंह खाती को उनकी सामाजिक और सां-
स्कृति असाधारण सेवाओं के लिये श्रेष्ट नागरिक शिरोमणि सम्मान से विभूषित किया गया |
अपने औपचारिक भाषणों में समस्त मंचासीन अतिथियों ने बाल साहित्य की दशा और दिशा
का विवेचन किया | सत्र का संचालन डा.राज सक्सेना और डा.सुनीता चुफाल रतूड़ी ने किया  |
श्राफ पब्लिक स्कूल की प्रखरप्रवक्ता अंजू भट्ट ने समस्त अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापने किया |
                         अन्तिम चतुर्थ सत्र में उपस्थित कविगणों की कविसंगोष्ठी का आयोजन किया
गया | संगोष्ठी की अध्यक्षता रावेन्द्र कुमार रवि ने की तथा मुख्य अतिथि पुष्कर सिंह धामी
थे |विशिष्ट अतिथि आमन्त्रित कवि डा.रामनिवास मानव,डा.प्रभापन्त,वरूण  अग्रवाल,पु
ष्कर सिहं धामी,नीलिमा श्रीवास्तव, डा.राज सक्सेना और नेपाल से पधारे लक्ष्मीदत्त भट्ट ने
कविता पाठ किया रावेन्द्र रवि ने अन्त में सुन्दर कविताएं सुनाईं  | कविगोष्ठी का सफल
संचालन डा.-सुभाष वर्मा ने किया | अंत में राज सक्सेना ने समस्त आमंत्रितों का धन्यवाद
देते हुए उपस्थित विद्वदजनों को अपनी दो पंक्तियां समर्पित कीं -
          इस शहर के नाम से लोगों ने जाना है हमें,
          अब हमारे नाम से जानेंगे इसको लोग सब |
                                                   ममता सक्सेना,खटीमा-२६२३०८(उ.ख.)

बुधवार, 19 सितंबर 2012

सुख्,शांति,सरसता बहने दो


           सुख्,शांति,सरसता बहने दो
                             -राज सक्सेना
विषवाण न छोड़ो वाणी से, अमृत सी कविता कहने दो |
रखदो इन घातक तीरों को,सुख,शांति,सरसता बहने दो |
           मानवरक्तों से लथपथ जो,
           क्यों उठा लिए दोधारे हैं |
           इनपर जिनका भी रक्त लगा,
           वे भी तो सभी हमारे हैं |
छोड़ो सब मुद्दे लड़ने के, तज - कटुता,मृदुता रहने दो |
रखदो इन घातक तीरों को,सुख,शांति,सरसता बहने दो |
           इस प्रजा-तंत्र  के सागर से,
           दूषित - शैवाल हटाना  है  |
           जो बिके खनकते सिक्कों पर,
           उनको अब सबक सिखाना है |
मिट रही भूख,डर खत्म हुआ,जीवित समरसता रहने दो |
रखदो इन घातक तीरों को,सुख,शांति,सरसता बहने दो |
           सद्प्रेम तुम्हारा कहां गया,
           क्यों भाई-चारा सोता है |
           शिकवे सब दूर करो मन से,
           बातों से सब हल होता है |
बस एक धर्म है मानवता,  मन में मत जड़ता रहने दो |
रखदो इन घातक तीरों को,सुख,शांति,सरसता बहने दो |
           आगया समय अब उन्नति का,
           उठ कर अब चलने योग्य हुए |
           जो सपने देखे थे मिल कर,
           साकार, समर्पित-भोग्य  हुए |
मत आग लगाओ सपनों में, इन सबको पलता रहने दो |
रखदो इन घातक तीरों को,सुख,शांति,सरसता बहने दो |

  धन वर्षा,हनुमान मन्दिर, खटीमा-262308 (उ०ख०)
    मोबा०- 9410718777, 7579289888, 8057320999

बुधवार, 29 अगस्त 2012

काव्यान्जलि


       काव्यान्जलि
              - डा.राजसक्सेना
हे बाल काव्य के 'बाल'दूत,
साहित्य विधा के'शौरि'श्रेष्ट |
हे ब्रह्म'रेडिड्',सम्पाद - दक्ष,
आदित्य-रूप, हे सर्व-श्रेष्ट |

रक्षक बन 'चन्दा - मामा' के,
पच्चीस वर्ष जगमग करके |
बन गए बालसाहित्यशिखर,
अनुपमतम-सम्पादन करके |

पैरों पर अपने खड़ा किया,
भूलुण्ठित बाल विधाओं को |
साहित्य जगत में स्थापित,
कर दिया नवल सीमाओं को |

हे बाल सृष्टि-साहित्य जनक,
इतिहास आपने रच डाला |
दोयम दर्जा,  जो रहा सदा,
समकक्ष 'अन्य' के कर डाला |

नवजीवन दे  बालविधाओं को,
श्रीमय कर वैभव पूर्ण किया |
करदिया आपने उज्जवलतम,
गरिमामण्डित-सम्पूर्ण किया |

आभारी हैं हम, नर - पुंगव -,
गुणगान  आपका  गाते हैं |
ले श्रेष्ट-सोच,  सादा - जीवन,
नित श्रेष्ट आप बन जाते हैं |

'श्रद्धेय आपने , ' रेडडी '   जी  ,
स्वर्णिम - इतिहास बनाया है |
जो नहीं कर सका था कोई,
वह ही करके दिखलाया है |

कर - वद्ध निवेदन प्रभु से है,
सौ-सौ वर्षों तक जियें आप |
कुछ और रचें मानक नितनित,
शतशत कमलों से खिलें आप |

-धनवर्षा,हनुमान मन्दिर,
खटीमा-262308 (उ.ख.)
मोबा.- 9410718777

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

हिस्सा बनो मत भीड़ का


 हिस्सा बनो मत भीड़ का
          - डा.राज सक्सेना
अवसर मिले नेतृत्व लो,
हिस्सा बनो मत भीड़ का |

हो नहीं तुम आमजन में,
हो यहां सबसे अलग |
तुम चलाओगे व्यवस्था,
आम लोगों से अलग |

छवि  मसीहा  की  बना-,
कारण बनो मत पीड़ का |
अवसर मिले नेतृत्व लो,
हिस्सा बनो मत भीड़ का |

क्या समस्या है यहां पर,
हल न कर पाओ जिसे ?
तोड़  पर्वत   राह   का  ,
समतल बना जाओ उसे |

लहलहाएं  बस्तियां -,
अंकुर उगे नित नीड़ का |
अवसर मिले नेतृत्व लो,
हिस्सा बनो मत भीड़ का |

है जरूरत'राज'जग को,
एक ऐसे मंत्र  की |
एक चुट्की में करे हल,
यातना हर तंत्र  की |

मत बनो उप अंग कोई,
रूप लो तुम रीढ का |
अवसर मिले नेतृत्व लो,
हिस्सा बनो मत भीड़ का |

गुरुवार, 28 जून 2012

प्रिय नागेश जी
                 सादर   अभिवादन । आशा है आप स्वस्थ  एवं  सानन्द होंगे । बाल प्रभा  प्रवेशांक 

दशा और सम्भावनाएं-बाल साहित्य की


       डा.राज सक्सेना                            सम्पर्क-धनवर्षा,हनुमान मन्दिर,
 (डा.राज किशोर सक्सेना)                                               खटीमा-262308 (उ.ख.)
पूर्व जिला परियोजना निदेशक,न.वि.अभिकरण, पिथौरागढ,              फोन-05943252777
पूर्व अधिशासी अधिकारी,मसूरी,                                         मोबा.- 9410718777
पूर्व सहा.नगर आयुक्त नगर निगम देहरादून                                    -8057320999
________________________________________________________________________________
          दशा और सम्भावनाएं-बाल साहित्य की
                                 - डा.राज सक्सेना
         बच्चे हमारी धरोहर हैं,वे हमारे समाज के भविष्य की नींव के पत्थर
भी हैं | बच्चे जितने विचारशील,परिपक्व और गहनसोच के होंगे उतना ही हमारा -
समाज भी विकसित और सुदृढ होगा | मौलिक रूप से प्रत्येक बालक में ज्ञान का
अनन्त भंडार निहित होता है,जिसे थोड़ी सी दिशा देने की आवश्यकता होती है और
वह अपना विस्तार पकड़ लेता है | इस दिशा को बाल मनोविज्ञान की सही समझ
से परिमार्जित करके बालक का सही और सटीक दिशा निर्देशन सम्भव हो सकता है |
बाल मनोविज्ञान के माध्यम से हम बच्चे के अन्तर का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के
उपरान्त व्यक्तिगत भेद के अनुसार उसकी बुद्धि के स्तर, उसकी आन्तरिक और -
बाह्य क्षमता तथा योग्यता के आधार पर उसकी शिक्षा का मार्ग और स्तर निश्चित
करने में सफल हो सकते हैं |
          संयुक्त परिवारों के बिखराव, अन्धाधुन्ध शहरीकरण,बदलता सामाजिक
परिवेश और इलेक्ट्रानिक्स मीडिया के अभारतीय दौर और कम्प्यूटर तथा वीडियो गेम
के युग में बच्चा बाल साहित्य की वट वृक्ष रुपी छाया से विलग और विरत होकर -
संस्कृति और सामान्य प्रकृति से दूर होकर कल्पनालोक की सैर का आदी होता जा -
रहा है | इलेक्ट्रानिक मीडिया धन कमाने की लालसा में ऊलजलूल, अवैज्ञानिक व
अतार्किक सामग्री प्रस्तुत कर बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान से अलग करता जा रहा है|
इन परिस्थितियों में बाल साहित्य के माध्यम से ही, अच्छी,मनोरंजक और व्यव-
हारिक पठनीय सामग्री प्रस्तुत करके उन्हें निकृष्ट कल्पनालोक से वापस लाया जा -
सकता है |
         बाल साहित्य लेखन कोई बच्चों का खेल नहीं है | व्यापक क्षेत्र के बावजूद
सीमित सीमाओं ने इसे कठिन बना दिया है | इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि
बच्चों के लिये लिखने की कला लगभग ऐसी ही है जैसे बच्चों को पाल पोस कर बड़ा
करना कितना कठिन एंव श्रम साध्य कार्य है | वस्तुतः जो कुछ भी बच्चों के बारे में
लिखा जाता है वह बालवाड़्मय है  यह किसी भी दशा में सही नहीं है | सच्चा बाल-
वाड़्मय वही कहा जा सकता है जो बच्चों के लिये लिखा जाता है | साहित्य का सृजन
स्वान्तः सुखाय माना जाता है | यूं तो कला कला के लिये और कला उपयोगिता  के
लिये का विवाद सम्भवतः ललित कलाओं के जन्म से ही प्रारम्भ हो चुका था और -
स्वान्त;सुखाय तथा सत्यम शिवम सुन्दरम का लक्ष्य भी निर्धारित किया जा चुका था |
इस विवाद के रक्तबीज होने का रहस्य यह है कि कसौटी पर देश,काल और परिस्थिति
में से किसी भी एक के बदल जाने पर पुनर्मूल्यांकन की चर्चा आवश्यक हो जाती है |
यही बात बाल साहित्य पर भी शब्दश; सही बैठती है और खरी भी उतरती है |
          यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि साहित्य की व्याख्या में
मुख्य रूप से दो दृष्टिकोणों से अनुशीलन किया गया है |प्रथम के अनुसार वह साहित्य


                                          -2-
जो साहित्येत्तर प्रभावों,वर्जनाओं और प्रतिमानों से मुक्त है वह साहित्य है | दूसरे -
दृष्टिकोण के अनुसार 'लोकहिताय'रचित साहित्य ही साहित्य है | यहां यह स्पष्ट करना
भी आवशयक है कि साहित्य में शुद्धता का प्रश्न आधुनिक विज्ञान और तकनीकी प्रगति
के कारण उभरा है | विज्ञानवेत्ताओं और नेताओं ने सामाजिक नेतृत्व अपने अधीन -
करके साहित्य के नेतृत्व को किनारे कर दिया है |परिणामस्वरूप वह और अन्तर्मुखी
होता गया और समाज के पथप्रदर्शन्,सुधार के लिये नेतृत्व को उसने भी गौण कर
दिया | लगभग यही स्थिति बाल साहित्य के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है |
इसे इतना बांध दिया गया है कि स्थिति बड़ी अस्पष्ट सी हो गई है | वर्जनाओं का
अम्बार लगा है , बिषयों का अकाल है | पश्चिम के परिप्रेक्ष्य में रची गई धारणाएं
जबरदस्ती लादी जा रही हैं किन्तु इनके बीच भी प्रचुर बाल साहित्य सृजन हो रहा
है | बाल साहित्य का भण्डार बढ रहा है |
                हर भाषा और साहित्य का चाहे वह किसी भी क्षेत्र या देश का हो
अपना एक इतिहास होता है | जहां तक हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास अथवा
उद्भ्व या इसके काल विभाजन का प्रश्न है, कुछ प्रतिष्ठत बाल साहित्यकारों ने
इस दिशा में प्रयास किये हैं किन्तु इन सब का आधार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का
हिन्दी साहित्य का इतिहास ही रहता है | अलग से कोई नई बात कोई प्रयास-
कर्ता नहीं कह पाया है | बाल कविता के सन्दर्भ में भी यही स्थिति दृष्टिगत होती
है, सबकी धुरी निरंकार देव सेवक पर ही टिकी रहती है |
               यहां पर यह प्रश्न भी उठता है कि जब सब कुछ सहज उपलब्ध है
तो हिंदी बाल साहित्य के पृथक से लेखन और विवेचन की आवश्यकता ही क्या
है | इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा.परशुराम शुक्ल द्वारा लिखित
'हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास'आलेख का यह उद्धरण आवश्यक है जो बहुत
सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता है-
                 "हिन्दी बाल साहित्य के अलग इतिहास की आवश्यकता दो  आ-
धारों पर अनुभव की गई- व्यवहारिक और सैद्धान्तिक | यह सत्य है कि अनेक
दिग्गज साहित्यकारों- मुंशी प्रेमचन्द्र, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी'निराला',
सुमित्रानन्दन पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान,मैथिलीशरण गुप्त आदि साहित्यकारों ने
बाल साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य माने जाने के कारण इन्होंने बाल साहि-
त्य लिखना छोड़ दिया | अतः बाल साहित्य को उसका वास्तविक स्थान दिलाने
के लिये हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास की आवश्यकता है |" (भाषा-मई-जून
2007)
                 मूलतः हिन्दी बाल साहित्य की नींव का पत्थर संस्कृत बाल साहि-
त्य और लोककथायें ही है | इसको आदर्श मानकर यदि हिन्दी बालसाहित्य की वि-
भाजन रेखा 1800 मान ली जाय तो वह सर्वोचित होगा | संस्कृत बालसाहित्य ने
अपनी समृद्ध विरासत को अपनी हिन्दी बेटी को हस्तांतरित किया,हिन्दी बाल सा-
हित्य की पृष्टभूमि तैयार की और उसे बाल साहित्य के विश्वपटल पर प्रतिष्ठत भी
किया |
          इसी प्रकार हिन्दी बाल साहित्य को दूसरे प्रमुख कारक ने समृद्ध
किया, हिन्दी और उसकी अनुगामी बोलियों, भाषाओं और उपभाषाओं के लोक
साहित्य और लोककथाओं ने |  लोक - कथाओं के साथ-साथ लोकगाथाओं ने भी
हिन्दी बाल साहित्य को सजाने में अपना मह्त्वपूर्ण योगदान दिया है | साहित्य -


                                         -3-
और बाल साहित्य पर,लोकगाथाओं का जो लोक साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं का,
विशेष प्रभाव पड़ता है | पूर्ववर्ती मानसिकताएं,मान्यताएं और सामाजिक संरचना -
का स्वरूप ये गाथाएं हमारे सामने गठरी बांध कर रख देतीं हैं | इन लोक कथाओं
और लोक गाथाओं के मूल व उत्पत्ति के कारण को जानने के लिये जब हम सुदूर
अतीत की ओर झांकते हैं तो हमारी आंखे और बुद्धि सृष्टि के आरम्भ पर ही जाकर
विराम लेती है | यही हमारी संस्कृति के मुख्य बिन्दुओं की संवाहक भी बनती है |
अतः हिन्दी बाल साहित्य निश्चित रूप से इनका भी ऋणी है |
            डा.हरिकृष्ण देवसरे ने 1800 से 1850 तक का समय पूर्व भार-
तेन्दु युग के रूप में प्रस्तुत किया है | इस काल में खड़ी बोली के एक भाषा के
रूप में गठन और परिमार्जन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी | इस युग के सृजन
में तीन साहित्यकारों सदल मिश्र, लल्लू लाल तथा राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद्
के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं |  
        हिन्दी बाल साहित्य का सुनियोजित प्रकाशन इण्डियन प्रेस,रामनारायण
लाल इलाहाबाद तथा हरि दास मणिक कलकत्ता की प्रकाशन संस्थाओं के माध्यम से
बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रारम्भ हो चुका था | किन्तु सही ढंग और सुचारू
रूप से बाल साहित्य की समीक्षा का आज भी लगभग अकाल ही है | यद्यपि बालहित
तथा साहित्य संदेश में 1939 से 1960 के मध्य कुछ लेख समीक्षा के प्रकाशित भी
हुये और भी कुछ छिट-पुट लेख तद्-विषयक प्रकाशित तो हुए किन्तु वे मात्र सरसरी
नज़र से सर्वेक्षण समान ही थे | 1946 में भीष्म एण्ड कम्पनी द्वारा प्रकाशित एंव -
श्री कृष्ण विनायक द्वारा लिखित 'बाल दर्शन' सम्भवतः बाल साहित्य विमर्श की -
प्रथम पुस्तक के रूप में सामने आती है | तदोपरान्त 1952 में 'हिन्दी किशोर सा-
हित्य'जो ज्योत्सना द्विवेदी द्वारा रचित थी नन्द किशोर एण्ड ब्रदर्स बनारस से प्रकाशित
हुई | 1966 में बाल काव्य पर स्वनामधन्य निरंकार देव सेवक की 'बाल गीत साहित्य'
(1983 में उ०प्र० हिन्दी संस्थान से पुनर्मुद्रित) किताब महल इलाहाबाद से प्रकाशित -
हुई जिसे बाल साहित्य संकलन का हर दृष्टि से समग्र और समर्थ ग्रंथ कहा जा सकता
है |यह ग्रंथ वर्तमान बाल साहित्यकारों का प्रतिमान एंव मार्गदर्शक भी  बना | इसके
पश्चात अनेक विद्वानों ने इस बिषय में योगदान प्रस्तुत किये जिनमें कुछ प्रयास अच्छे
और प्रमांणिक भी थे और कुछ संकलन सूचकांक सरीखे भी थे |
          स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त पत्रकारिता ने भी करवट ली और वह भी
व्यवसाय के रूप में सामने आई | समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का प्रकाशन तो -
विशुद्ध व्यवसाय ही बन गया | जिनके पास अन्य साधनों से सृजित अकूत धन-
सम्पदा है वे समाचार पत्र-पत्रिकाओं के धन्धे में कूद पड़े हैं | इससे इन्हें जहां एक
ओर समाज में सम्मान प्राप्त होता है वहीं वे प्रशासन और राजनीति पर अपना -
दवाब बनाने में भी सफल रहते हैं | इसी का अनुसरण कर बच्चों के लिये पत्रि-
काओं और पुस्तकों का प्रकाशन भी व्यवसाय बन गया मिशन नहीं रहा | मिशन
के रूप में कार्य कर रहे लोगों ने सिद्धान्तों से समझौते नहीं किये फलस्वरूप वे
निरन्तरता नहीं बनाए रख सके और असफल होकर उन्हें प्रकाशन बन्द करने पड़े|
साथ ही धन्धे के रूप में बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वालों ने भी इसे घाटे
का या कम मुनाफे का धन्धा समझ कर प्रकाशन बदं कर दिया | बाल पत्रिकाओं
का प्रकाशन प्रारम्भ और बन्द होता रहा | आज गिनी चुनी व्यवसायिक घरानों
द्वारा - पांच,सरकारों द्वारा-6,स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा-13 बाल पत्रिकाएं और व्य-


                                       -4-
सायिक घरानों द्वारा दो किशोर पत्रिकाएं निकाली जा रही हैं | इसके अतिरिक्त चार
बाल समाचार पत्रों का  अर्थात कुल 31 बाल पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है |
इनकी प्रकाशन संख्या क्या-क्या है यह विवाद का विषय रहा है |
          विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी पिछले कुछ दिनों में बाल -
पत्रिकारिता का स्वरूप कुछ उभरा सा लगता है | आर्थिक संकटों के चलते कुछ
घरानों और संस्थाओं ने निरंतरता बनाए रखी है | यहां कुछ विशिष्ट बाल क्षेत्रों
का उदाहरण न लें तो प्रचलन बढा भी है | वर्तमान में बालकों की पहली पसंद
आज कामिक्स हो चुका है | जिसका भरपूर प्रकाशन हो भी रहा है | कारण -
चाहे असीमित लाभ का ही हो बाल साहित्य का प्रकाशन हो तो रहा है | बच्चों
की पढने की आदत पड़ तो रही है |
           आज हमारे सामने सब से ज्वलंत प्रश्न यह है कि बच्चों का बाल-
साहित्य से जुड़ाव हो तो कैसे?, भाषा कैसी हो?, विषय कैसे और क्या हों, वे
उपदेशात्मक हों या मनोरंजक, बेतुके और बेबुनियाद अनुवादों से कैसे बचा जाय ?
आदि-आदि | वर्तमान में स्थिति यह है कि प्रकाशित होने वाली अधिकांश बाल-
पत्रिकाएं किशोर पत्रिकाएं हैं | दस वर्ष तक के बच्चे के लिये उनमें सामग्री का
अभाव ही रहता है | पता नहीं किन कारणों से बाल लेखन को अभी तक विस्तृत
कैनवास नहीं मिल सका है | कारण गिरोहबंदी भी हो सकती है और सार्थक -
लेखन  का अभाव भी ?| कुल मिला कर बीस लेखक या कवि सम्पूर्ण लेखन
पर जमे बैठे हैं किसी और का पदार्पण हो ही नहीं पा रहा है | वे अन्धों में काने
राजा बन कर राज कर रहे हैं | अपने हुक्मनामे चला रहे हैं, बाल साहित्य के
मानदण्ड निर्धारित कर रहे हैं, बाल पाठक से कोई नहीं पूछ रहा कि उसे क्या
चाहिए ?|
            रेडियो और दूरदर्शन में भी बाल कार्यक्रमों का अभाव सा ही है |
इक्का-दुक्का आते भी हैं तो जानकारी के अभाव में आए-गए हो जाते हैं | बाल
पत्रकारिता या लेखन बच्चों के लिये हो  न कि विद्वता प्रर्दशन या बड़ों के लिए |
          प्रसंगवश यहां पुनः उद्धरण देना आवश्यक है | ब्रैसी सैंड्रारस ने कहा है कि
'कोई काम इतना कठिन नही है जितना बच्चों के लिये लिखना |' आगे कहती हैं
'बच्चों के लिये पुस्तक लिखने के बाद कोई काम इतना कठिन नहीं है जितना बच्चों
की पुस्तकों के बारे में लिखना |'प्रसंग को और विस्तार देते हुए फिर कहती हैं,'बच्चों
की पुस्तकें लिखने के बाद कोई काम इतना कठिन नहीं है जितना बच्चों की पुस्तकों के
बारे में लिखना किन्तु बच्चों की पुस्तकों के लिखने के बारे में लिखना इसका अपवाद है |'
        भारतीय बाल साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य पर चर्चा से पूर्व
उसका आकलन आवश्यक है | भारतीय समाज में बालक का प्रारम्भ से बड़ा महत्व रहा
है | इसी लिए बालक को पांच वर्ष तक माता के अधीन, आठ तक पिता के और फिर
पच्चीस वर्ष तक आचार्य के अधीन रखने की व्यवस्था की गई है | उपरोक्त महत्ता और
जीवन पद्दति के अनुरूप हमारा प्राकृत,पाली और संस्कृत बाल साहित्य ग्रंथित है | इसी
प्रकार दंत कथाओं,लोक कथाओं और रूपक कथाओं से भारतीय बाल साहित्य भरा पड़ा
है | साहित्य में वात्सल्य रस को बाल साहित्य के रूप में एक विशिष्ट मान्यता प्राप्त
रही है | हिन्दी बाल साहित्य से यदि पूर्व अनुवादों को हटा दिया जाय तो आधुनिक बाल
साहित्य यद्यपि संख्या बल में ,बीसवी सदी के दूसरे दशक से प्रारम्भ होने के बावजूद
पच्चीस हजार के लगभग पुस्तकों का प्रकाशन हो चुकने के बाद भी, इनमें से आधे से


                                       -5-
भी कम पुस्तकों को ठीकठाक और दस प्रतिशत से भी कम पुस्तकों को श्रेष्ठ बालसाहित्य
का दर्जा दिया जा सकता है | व्यापक अर्थ में सामान्यतः बाल साहित्य से तात्पर्य -
शिशु और किशोर साहित्य ही है |पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे को मोटेतौर पर ठीक
से अक्षर ज्ञान नहीं होता है | वह श्रवण मात्र से ही लोरी और अर्थहीन तुकबंद कविता
 का आनन्द लेता है | चार से छै वर्ष तक के बालक चित्रों या चित्रकथाओं से चेतना
और आनन्द प्राप्त करते हैं | सात से दस वर्षों की वय में वह वयस्कों के सानिध्य से
पढना प्रारम्भ कर देता है | इस आयु का बालक सामान्यत: तीसरी से पांचवी स्तर का
छात्र होता है | इस समय अपनी मातृभाषा के 200 से अधिक शब्दों का उसे ज्ञान हो
जाता है | इस आयुवर्ग का बालक लोककथा,रूपककथा.भूतप्रेत तथा राक्षसों की कथाएं
पसंद करता है | इससे पूर्व वह परी कथाओं और उड़नखटोलों जैसी कथाओं का आनन्द
ले चुका होता है | इस आयु वर्ग में ही उसका रुझान शिकार व युद्ध कथाएं सुनने,भ्रमण
वार्ताओं,अभियान कथाओं तथा वीर कथाओं की ओर बढता है |
                     जहां तक पुस्तकों का प्रश्न है,अबतक प्रकाशित बाल पुस्तकों के सर्वेक्षण
के आधार पर आलोचकों का निष्कर्ष है कि अधिकतर पुस्तकें 12 वर्ष से कम आयुवर्ग
के लिये हैं | 12 से 15 की आयु के वर्ग के लिये श्रेष्ठ बाल साहित्य कम प्रकाशित -
हुआ है और 15 से 18 वर्ष के किशोरों के लिये तो श्रेष्ठ पुस्तकों का लगभग अभाव सा
ही है | सर्वेक्षंणों से असहमति का प्रश्न ही नहीं है | एक तो बालकों के लिखने का
कठिन कार्य और वह भी उस दशा में जहां आप एक निश्चित सीमा से, चाहे वह बिषय-
गत हो, विधागत हो या भाषागत, सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकते | यहां यह
भी उल्लेखनीय है कि अवशेष साहित्य में अधिकाधिक भावाभिव्यक्ति है तो बाल साहित्य
के सृजन में अधिकांशतः ज्ञान कराना,शिक्षा देना ही अभीष्ट बन जाता है,जो इसे सोद्देश्य
लेखन होने के कारण स्वान्तः सुखाय या लोक हिताय लेखक से अलग कर सोद्देश्यपरक
मूल्यों के कारण क्रत्रिम,आरोपित और उपदेशात्मक होने के दोषों से परिपूर्ण कह कर -
प्रथक कर देता है |
         चर्चा का बिषय तो हिन्दी में बाल साहित्य कभी रहा ही नहीं | बच्चों के
लिये पत्रिकाये भी निकलती रहीं और पुस्तकें भी,मगर इनके पीछे रचनात्मक सोच रही
या रही तो उस पर कुछ अमल भी होता रहा यह नही लगा | लोग जो लिखते रहे वह
छपता रहा | संक्षेप में कहें तो हिन्दी साहित्य में बाल साहित्य भरती का बिषय बन
गया और पृष्ठों को भरता रहा | हिन्दी में बड़ों की पत्रिकाओं में कुछ पृष्ठ बच्चों के लिये
'बच्चों का कोना या अन्य नाम से'निर्धारित कर दिये जाते हैं जिन्हें भरने के लिए -
लिखा या लिखवाया जाता रहा है |
          बच्चों के लिये शुद्ध व्यवसायिक पत्रिकाएं भी निकलती रही हैं | किन्तु
उनका मानद्ण्ड लोकप्रियता के आसपास घूमता रहा है | उदाहरण स्वरूप'चन्दा मामा'
को लिया जा सकता है जिसे बच्चों के बजाय बडों ने अधिक पढा है | बच्चों के लिये
निकलने वाली पत्रिकाओं ने अधिकतर अपनी पाठ्यसामग्री को दोहराया ही है | यह
अपनी रूढियों, वर्जनाओं और सीमाओं यथा लोककथा,परी कथा और प्रतीक पशु क-
थाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रहीं हैं | इनमें से कुछ तो बन्द हो चुकी हैं और कुछ
बस निकलती ही जा रही हैं | कारण दुतरफा रहा है कहा जाय तो उचित होगा | -
बाल साहित्य के लेखकों,कवियों की ओर से कोई सार्थक प्रयत्न हुआ न प्रकाशकों और
सम्पादकों की ओर से ही | इन दोनों ने बाल साहित्य के वास्तविक आलोचकों बाल-
पाठकों की न तो प्रतिक्रियाएं ही सुनीं और न वांछना पर ही ध्यान दिया | अगर यह


                                   -6-
सब किया गया होता तो शायद, न यह ठहराव ही होता और न यह दोहराव | सम्भ-
वतः तब इसे समकालीन जीवन से भी जोड़ा जा सकता था | अब इक्का दुक्का स्तर
पर इस बिषय पर विचार और कार्य हो रहा है | इस सम्बन्ध में यह कहना समीचीन
होगा कि स्वतंत्र रूप से स्वंय प्रकाशित पुस्तकों में तो यह विड्म्बना के रूप में उभरा
है | जो मन आया लिख दिया गया और जुगाड़ करके प्रकाशित भी करा दिया गया |
भले ही वह कैसा भी हो | ऐसा नहीं है कि यह श्रेष्ठ या श्रेष्ठतम नहीं रहा किन्तु -
अधिक संख्या में वही हुआ जैसा कहा गया है | फलस्वरूप इस प्रकार नयापन न आ
सका एक ही बात को शब्द और भाव में परिमार्जन कर प्रकाशित करा दिया गया |
एक या कुछ धुरियों के गिर्द बाल साहित्य चक्कर लगाता रहा | आज स्थिति यह है
कि 'बहुत सारे बाल साहित्यकारों में से कुछ स्वयंभू पुरोधा भी बन गये हैं | मगर
उनमें से कितने ऐसे हैं जिन्हें बच्चे अपना 'लेखक' या 'कवि' कह पाएंगे | यह -
बहस या विवाद का बिषय नहीं है , यह वास्तविकता है और इसे हमें स्वीकार करना
चाहिए |
              ऐसा नहीं है कि बहुत अच्छा लिखा ही नहीं गया है किन्तु प्रकाशकों,क्रीत-
लेखकों और पुरोधाओं की जुगलबन्दी ने उसे प्रकाशित ही नहीं होने दिया | इधर-उधर
से व्यवस्था कर वह अच्छा साहित्य प्रकाशित भी हुआ तो न तो वह पाठकों तक ही
पहुंच पाया और न ही इन गुटबन्दियों ने उन्हें मंच प्रदान किया और ना ही उचित स-
मीक्षा कर प्रोत्साहित किया | फल आपके सामने है | हिन्दी का बाल साहित्यकार -
नम्बर तीन  से भी नीचे का या यूं कहें सबसे निकृष्ट श्रेणी का साहित्यकार होकर
रह गया | साहित्य के क्षेत्र में न तो वह कहीं पूछा ही जाता है और ना ही कहीं -
ठहरता भी है | कुछ लोग इस स्थिति में सुधार के प्रयास करते भी हैं तो या तो
उनकी टांग खींची जाती है या यह गिरोहबन्द बाल साहित्य पुरोधा उनका बहिष्कार
करने के फतवे जारी कर देते हैं ताकि उनकी बंधुआ बाल साहित्यजीवी प्रजा में जाग-
रूकता न आ जाय | यह भूल कर कि वे जिस पेड़ की डाल पर बैठे हैं उस पेड़ की
जड़ों में ही मट्ठा डाल रहे हैं | खैर वे जानें | बाल साहित्य उनसे नहीं वे बाल-
साहित्य से जाने जाते हैं | बालसाहित्य की उन्नति से ही उनकी उन्नति सम्भव है |
हमें प्रयास पूर्वक और यदि आवश्यकता हो तो 'शठे शाठ्यम समाचरेत' उक्ति का
अनुपालन करके भी इस दशा और स्थिति को  आवश्यक रूप से बदलना होगा |
          इन कुछ कारणों से बाल साहित्य में नयापन बहुत कम रहा | इस का
क्रमिक और सतत विकास सम्भव नहीं हो सका | फलतः हिन्दी बाल साहित्य बराबर
उपेक्षित,अनियोजित,बिखरा,छिटपुट,भरती का और कामचलाऊ जैसा ही बन कर रह -
गया | ऐसे में कोई नया लेखक आया भी तो वह इस बिखराव में इधर-उधर बिखर
गया या निराश हो कर अवशेष साहित्य विधा की ओर मुड़ गया | उसे न प्रोत्साहन -
मिला न प्रदर्शन ही मिला तो वह यहां रुके भी क्यों ?
          जहां तक बाल साहित्य के निम्नतम दर्जे का समझे जाने का प्रश्न है,
स्वंय बाल साहित्य के लेखकों,कवियों और अन्य प्रकार से बाल साहित्य से जुड़े लोगों
ने कभी इस ओर गंभीर प्रयास किये ही नहीं | बाल साहित्य को श्रम और समयदान
की बात निरंकार देव सेवक जैसे बिरले साहित्यकारों ने ही की है | बाल पाठकों के
लिए अच्छे साहित्य की खोज के गंभीर प्रयास भी न तो हुए और न ही अब हो पा रहे
हैं | फलतः परिणाम वही शून्य सरीखा है | अधिक अच्छा बाल साहित्य अधिक मात्रा
में सम्भवतः तभी सम्भव हो सकेगा जब बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों की -


                               -7-
अलग से कोई अच्छी पहचान बने और श्रेष्ठ साहित्यिक तथा व्यवसायिक दोनों स्तरों
पर यह माना जाना प्रारम्भ हो जाय कि इन दोनों में उनका योगदान कम महत्वपूर्ण
नहीं है |
           जहां तक सम्भावनाओं का प्रश्न है | यदि बदलती रूचियों और परि-
वर्तित संदर्भों की स्थिति ध्यान में नहीं रखी गई तो कुछ भी नहीं बदलेगा  स्थिति
और भी शोचनीय हो जाएगी |                    वर्तमान काल की सबसे बड़ी आव-
श्यकता है बाल साहित्य का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सृजन | समाज परिवर्तनशील तो
होता ही है,उसके उद्देश्य,मूल्य और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं |आज का बच्चा
चूहा-बिल्ली,शेर-हिरण,तोता मैना के कल्पनालोक से बाहर की सोच चाहता है और
हम उसे उसमें ही अटकाए रखना चाहते हैं | वह नए-नए शब्द सीखना चाहता है-
मगर हम उसे कम अक्ल समझ कर उसे कुछ शब्दों में ही समेटे रखना चाहते हैं |
जब बच्चा अपने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में मोटे-मोटे अंग्रेजी शब्द याद कर सकता
है तो उसे हिन्दी के कठिन शब्दों से दूर क्यों रखा जाय | उसके शब्द ज्ञान को हिन्दी
में ही सीमित क्यों रखा जाय | आज हमें इस पर भी विचार करना होगा | आज -
का बालक शौक से डिस्कवरी देखता है | तरह-तरह की वैज्ञानिक जानकारियां प्राप्त
करना चाहता है तो बाल साहित्य के माध्यम से उसे वह क्यों प्रदान न की जाएं |
यह जानकारियां उसके बौद्धिक विकास के साथ उसका बौद्धिक मनोरंजन भी करती हैं |
समय की आवश्यकता को जान कर इस विषय पर सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार त्रयी
डा.परशुराम शुक्ल,राजीव सक्सेना और घमण्डी लाल अग्रवाल अपना कर्तव्य पूरा कर
रही है | बाल साहित्य का अब तक जो रूप रहा है उसे बदलने के लिए एक सामुहिक
और सुनियोजित सोच लेकर उसका कार्यान्वयन सामुहिक रूप से दृढ इच्छाशक्ति
और सम्पूर्ण क्षमताओं के साथ करना होगा | हिन्दी बाल साहित्य- कारों  को
 को स्वाभिमान के साथ अपना 'स्वतंत्र व्यक्तित्व' बनाना होगा | लेखन  और
सोच में बड़प्पन लाना होगा | नयापन लाना होगा | वरना कुछ नहीं बदलेगा सब -
कुछ ऐसा ही रहेगा | ठहरे हुए जल की तरह | सड़ने की स्थिति के सन्निकट |
और इस सब के जिम्मेवार हम सब होंगे | सिर्फ हम सब |
           
                                                                   सम्पर्क-धनवर्षा,हनुमान मन्दिर,
                                                                    खटीमा-262308 (उ.ख.)
                                                                    मोबा.- 9410718777

         


विदा बन्दरिया की


     डा.राज सक्सेना                            सम्पर्क-धनवर्षा,हनुमान मन्दिर,
 (डा.राज किशोर सक्सेना)                                               खटीमा-262308 (उ.ख.)
पूर्व जिला परियोजना निदेशक,न.वि.अभिकरण, पिथौरागढ,              फोन-05943252777
पूर्व अधिशासी अधिकारी,मसूरी,                                         मोबा.- 9410718777
पूर्व सहा.नगर आयुक्त नगर निगम देहरादून                                                          -8057320999
________________________________________________________________________________




     विदा बन्दरिया की
                       - डा.राज सक्सेना                          
 
डम डमाक डम करे मदारी,
बन्दर     चाल   दिखाए |
कन्धे पर रख लम्बी लाठी,
विदा      कराने   जाए |
           देख-देख बन्दर राजा को,
           बन्दरिया      मुस्काए |
           सजी-धजी ढेरों गहनों से,
           अपनी  कमर   हिलाए |
जब बन्दर कहता चलने को,
नखरे     बहुत    दिखाए |
हाथ जोड़्ता      बन्दर उसके,
तब राजी    हो        जाए |
           ठुमक-ठुमककर चलती अपने,
           ससुरे     में    जब  आए |
           सर पर एक ओढनी    डाले,
           घूंघट में     छिप    जाए |

­­­­-----------------------------------------------------------

सैर गगन की
                - डा.राज सक्सेना                          
आंखो में मेरी आ जाती,
अपने पंख    हिलाती |
मां जब परीकथा का मुझको,
किस्सा    नया  सुनाती |

मुझे नींद में पा परियों की-
रानी     स्वंय   जगाती |
और उठा अपनी गोदी में,
दूर    गगन  ले   जाती |

ऊपर आसमान में उड़ना,
लगता  कितना   प्यारा |
लगते खेत क्यारियों जैसे,
घर डिब्बी   सा   सारा |

मां सी सुन्दर परी आंख में,
निंदिया   जब  भी पाती |
चुपके से आकर धरती पर,
मां के पास      सुलाती |

नींद  टूटती जब मेरी तब,
मां फिर    परी  बुलाती |
परी कथा मां के कहते ही,
नींद  मुझे  आ   जाती |





       पुकार अजन्मी कन्या की
                                         - डा.राज सक्सेना
कोख से तेरी बोल रही हूं,
मां मैं      तेरी   बेटी |
मेरी असमय हत्या करने,
क्यों बिस्तर पर    लेटी ?
           मैं भी तेरा अंश हूं माता,
           मगर नहीं क्यों    भाता |
           ऐसा क्या करती हूं मैं जो,
           तुझसे  सहा   न  जाता |
पैदा  होते  ही  अनचाही ,
स्थिति  मैं  पाती  हूं |
बचेखुचे कुछ टुकड़े पाकर,
मैं भी जी जाती    हूं |
         बिनवेतन के नौकर जैसी,
         घर में    स्थिति  मेरी |
         ताने खाकर भी जी लेती,
         जो हो स्थिति      मेरी |
जिसके गले बांध देती है,
बिन   बोले   जाती  हूं |
जितना भी दुःख मिले हमेशा,
सह  कर  मुस्काती   हूं  |
         दूर कहीं भी रहूं मगर मैं,
         प्यार   सभी   से करती |
         दोनों पक्षों की इज्जत को,
         सर पर   अपने   रखती |
भय्या कुछ भी करे, नहीं पर्,
बात  बड़ी बन      पाती ?
मेरे   आंख उठाने  भर  से,
सबकी     इज्जत   जाती ?
         समझ बराबर पुत्र-पुत्रियां,
         नहीं हमें   क्यों    पालें ?
         पुत्री को धुत्कार रहे सब,
         पुत्र प्यार      से  पालें ?

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

x.ks'k th dh QksVks


1
   eerk
   cky xaxk
    Mk-jkt lDlsuk



x.ks'k th dh QksVks


eerk çdk'ku]guqeku efUnj]
[kVhek&„ˆ„…劼mÙkjk[k.M½






3


dfBu ikfUMR;çn'kZu]ugha gS ckyxaxk esa |
vge~ ds liZ dk na'ku]ugha  gS ckyxaxk esa |
;s liuksa dk leiZ.k gS]tks Hkksyh vka[k us ns[ks]
fdlh dfoniZ dk n'kZU]ugha gS ckyxaxk esa |

                                                &Mk-jkt lDlsuk

4
 leiZ.k
'cky xaxk' dk leiZ.k]
 vkidks ] Jh&eku gS |
 gS ugha latky 'kCnksa dk]
 ân;    dk  xku gS |


ckydfork ]  dkO; dk&]
 eq>dks ugha dqN Kku gS |
 fdl rjg jl&Nan Mkywa]
 ;g~     ugha      laKku gS |


 ckyiu esa ykSV  dj tks&]
 dqN Loa; vuqHko fd;k |
 Hkko og eSaus   ;Fkkor ]
 gj leiZ.k dj   fn;k |


 fdafpr ugha]eSa  fHkK gwa]
 fdl Hkko ls nwa vkidks |
fe=or gh  HksaV gS ;g ]
cky vkSj xksiky dks |

 vki    pkgsa    rks    ân;]
  bl dks  yxk  dj rkj nsa |
 [kqn i<sa] lcdks i<k dj]
 ,d   u;k  foLrkj  nsa |
             &Mk-jkt lDlsuk






5
        'vkeq[k'
       'eerk cky xaxk'ysdj],d ckj fQj cPpksa ds lEeq[k mifLFkr gS | Mkåjkt&
fd'kksj lDlsuk'jkt'tks vc 'Mkå jkt lDlsuk' ds lkfgfR;duke ls fy[k jgs gSa]cky&
dkO; dks lefiZr jpukdkj gSa | bUgksaus cgqr ckn esa] thou ds mÙkjk/kZ esa] lsokfuo`fr
ds ckn cky dkO; {ks= esa inkiZ.k fd;k] fdUrq viuh vuojr lk/kuk ds cy ij] cky&
dkO;&lalkj esa] 'kh?kz gh viuh iq"V igpku cuk yh gS | Mkå lDlsuk us LoPNUn Hkko
ls  cky dkO;&l`tu  fd;k gS] cky& dkO; ds  'kkL=h;& i{k dh fpUrk   bUgksaus
dHkh ugha dh |
       'eerk ckyxaxk' lDlsuk th dh NBh cky dkO; —fr gS | ftlesa buds dqy
iSarhl cky xhr gSa vkSj dfork;sa laxzfgr gSa | bu cky dkO; jpukvksa dh Hkko xaxk esa
dgha dYiukvksa dh lqUnj eNfy;ka rSjrh fn[kkbZ nsrh gSa] rks dgha fopkjksa ds eueksgd
eksrh viuh ped fc[ksjrs fn[krs gSa | fcfHkUu ckyksi;ksxh fc"k;ksa ij pfpZr bu dforkvksa
esa jkspd fc"k;&oSfo/; gS | buesa dgha fgUnw&eqfLye foHksn dk ç'u mBk;k x;k gS]rks&
dgha fgeky; dh efgek of.kZr gS; dgha tUe fnu dk mYykl gS]rks dgha cky fnol dh
eLrh] dgha cky lqyHk ftKklk,a gSa]rks dgha VªSfQd :Yl ,oa vkn'kZ fnup;kZ dh ckrsa]dgha
foKku&lEcU/kh midj.kksa dk fooj.k gS]rks dgha egkiq:"kksa dh efgek dk o.kZu | xka/kh th
ds cUnjksa dks Hkh dfo ugha Hkwyk] D;ksafd&
         xka/kh th ds rhuksa cUnj]
         cSBs cky ikdZ ds vUnj |
         lq[k ls thou dks thus ds]
         ckaV jgs gSa lcdks eUrj |
      dkO; gks ;k cky dkO;] lDlsuk th nksuksa dks lksís'; ekurs gSa | buesa euks&
jatu ds lkFk&lkFk thouksi;ksxh lUns'k dk gksuk vko';d gS] cky dkO; ds fy;s rks ;g
vkSj Hkh t:jh gS | ftl cky dkO; esa cPpksa ds fy;s mfpr f'k{kk] Kku dk lUns'k u gks]
og muds fdl dke dk] blh fy;s] çLrqr laxzg dh vusd dforkvksa esa] dksbZ u dksbZ
lUns'k fufgr gS | mnkgj.k ds fy;s 'le; pØ' dfork dk lUns'k gS&
          mBks]le; ds lkFk pyks vc]
          O;FkZ u chrs  le;   dgha |
          Bhd le; ij]Bhd txg ij]
          dke laokjs]    lgh   ogh |
       cPpksa dh :fp] muds Lrj vkSj euksfoKku dk Hkh /;ku dfo]Mkå lDlsuk us
j[kk gS | vf/kdrj dforkvksa ds fc"k; cky&txr ls tqड़s gSa | vr% dgha&dgha dfBu
'kCnksa ds ç;ksx ds ckotwn~] iqLrd jkspd ,ao ckyksi;ksxh gh dgh tk;sxh |

 


                                       ¼ Mkåjke fuokl ekuo ½Mh-fyV
                                             ‰åˆ]lSDVj&ƒ…]fglkj&ƒ„‡åå‡
                                                                ¼ gfjå ½
                                       Qksu&僈ˆ„ „…Š‰„å


6
                                             

leh{kk cky xaxk
^cky xaxk^ MkWå jkt lDlsuk }kjk jfpr cky xhrksa dk ladyu gS

ftlds leiZ.k  esa lDlsuk th us fy[kk gS&
cky xaxk dk leiZ.k vkidks Jheku gS]
gS    ugha    latky    'kCnksa    dk]
ân;        dk       xku      gSA
ckyiu esa ykSVdj tks dqN Lo;a vuqHko fd;k]
Hkko og eSaus l'kä gj leiZ.k dj fn;kA
ckyxaxk esa yxHkx 110 ckyxhr laxzghr gSaA fu'p; gh ;g jpuk,as
mUgha vuqHkoksa dks vk/kkj cukdj fy[kh xbZ gSa ftls gj vkneh us
vius cpiu esa dHkh u dHkh ft;k gSA bu cky xhrksa esa cpiu ds
 vusd jax gSaA gj cPps dks Ldwy tkus dk >a>V ijs'kku djrk gSA
 lDlsuk th us fy[kk gS&
^lwjt rqe D;ksa jkst fudyrs
Nqêh  dHkh ugha  D;ksa  tkrs
Hkksj  gqbZ  ek¡ fpYyk  mBrh
mB  csVk  lwjt  mx vk;k
vk¡[ksa  [kksyks >i&>i tkrha
fldqM fleV vylkrh dk;k^
vius ?kj dks ns[kdj gj fdlh us cpiu esa lkspk gksxk fdruk vPNk
gksrk fd ?kj esa ifg, yxs gksrs tgk¡ eu pkgk mBk ys tkrs&
^ek¡ ifg, yxokys ?kj esa
lpy  Hkou  gks tk,xk
ikik j[kysa ,d MªkMoj
tks  gj  txg ?kqek,xk^
iqjkus ukrs u, fopkjksa ds lkFk dSlk vuwBk ç;ksx gS&
dSlk ekek] fdldk ekek
pank yxrk fdldk ekek
×××××××××××××××
dHkh ugha cktkj ?kqek;k
dHkh ugha fiTtk f[kyok;k
u cUnj dh [kksa&[kksa djds
tc jksrs ge dHkh galk;k′
exj bu xhrksa esa dsoy euksajtu gh ugha gS cfYd buesa Kku foKku
 ds HkaMkj dks cM+h lgtrk ls çLrqr fd;k x;k gS ftls cPps cM+h
 vklkuh ls xzg.k dj ldrs gSaA foKku dqaMfy;k¡ budk Js"B mnkgj.k gSa&
′xkM+h ij mYVk fy[kk ,EcqySal D;ksa fe=
vkxs xkM+h tk jgh feys fejj dks fp=
feys fejj dks fp= lnk mYVk vk,xk
lh/kk fy[k ns vxj i<+k dSls tk,xk
dgsa ^jkt dfojk;^ blh ls mYVk fy[krs
oSdO;q fejj esa ns[k mls ge lh/kk i<+rs′
MkWå jkt dh foKku dqaMfy;k¡ muds foKku laca/kh Kku dks n'kkZrh gSaA
cky xaxk esa ckydksa ds KkucnZ~/ku ds fy, muls lacaf/kr lHkh fo"k;kas
ij cM+h ljy] lgt Hkk"kk esa ys[kuh pykbZ xbZ gSA ek¡ ljLorh dh oanuk]
 mTtoy mÙkjk[k.M ls çkjEHk ls ,d loky&fgUnq]eqfLye D;k gksrs gSa\
 fgeky;] ugha le>rs de] vkt lquk ,d ubZ dgkuh] cky fnol ij
lquys ukuh&jfookj 'kh"kZd ls dfork,a gSaA vktknh lqu esjh ckr] esa cPps
 vehjksa ds ugha xjhcksa ds Hkh gSa tks >ksifM;ksa esa jgrs gS muds nnZ dks cM+h
 [kwclwjrh ls 'kCnksa esa fijks;k gS&
^;s Lye cLrh gS Hkkjr dh bldks lc dgrs gSa dyad
fdruh dksBh [kkyh lwuh&fnu jkr ;gk eurk clUr
ifjokj vkB dk jgrk gS ,d vkB&vkB ds dejs eas
ih<+h dejs esa tuh xbZ R;kSgkj eus lc dejs esa^
,d ls ,d c<dj dfork,a gSaA nqf[k;ksa ij n;k] rhuksa cUnj] tUe fnol]
vkn'kZ fnu&p;kZ] cPpksa dks uSfrd f'k{kk çnku djrh gSaA xkSjs;k] gfjr cuk,a]
 isM u gksrs] i;kZoj.k laca/kh dfork,a gSaA x.kra= fnol] cky fnol] dFkk
'kghn Å/ke flag dh] pUæ'ks[kj vktkn eas jk"Vªh;rk ds Loj gSaA
lHkh xhr ljy] lqcks/k Hkk"kk esa jps x, gSa ftuesa çpfyr 'kCnkas dks Hkys
gh og oSKkfud 'kCnkoyh ds gksa ds lkFk ;Fkkor çLrqr fd;k gS ftUgsa cPps
 vklkuh ls le> ldrs gSA xhrksa esa y;kRed ,oa /oU;kRedrk dk lEiw.kZ
 /;ku j[kk gSaA cky xaxk ds lHkh xhr uohu fopkj 'kSyh fy, gq, mR—"V dksfV gSaA
 cky lkfgR; ds HkaMkj dks le`) djus ds fy, jkt lDlsuk dks âkfnZd c/kkbZA
lHkh fo|ky;ksa esa cky xaxk iqLrd latksbZ tk, ,slk esjk vfHker gSA
                           
Lusg yrk
1/309]fodkl uxj] y[kuÅ
eksåuaå &9450639976



7

            Hkwfedk

       'cky xaxk' us ,d ckj fQj fl) dj fn;k  fd Mk-jkt lDlsuk ,d Js"B cky &
lkfgR;dkj gSa | fgUnh cky lkfgR; dh le`f) esa mudk ;ksxnku ç'kaluh; gS |
      'cky xaxk' esa lDlsuk th us çR;sd vk;qoxZ ds fy;s Js"B cky dforkvksa dk &
l`tu fd;k gS | mUgksaus cky euksfoKku dks /;ku esa j[krs gq;s ckydksa dh #fp] ço`fr&
vkSj LoHkko ds vuqdwy ys[ku fd;k gS | mudh ckydforkvksa ls tgka cPpksa dk euks&
jatu gksrk gS]ogha mudk KkuonZ~/ku Hkh gksrk gS |cPpksa dks laLdkj lEiUu cukuk vkSj &
muesa ln~&xq.kksa dks fodflr djuk mudk ije&iquhr /;s; vkSj mís'; gS |
       iwoZ esa mudh ikap cgq&ckyksi;ksxh —fr;ksa dk çdk'ku gks pqdk gS | mlh Ja[kyk
esa 'eerk cky&xaxk' dk çdk'ku Lokxr ;ksX; gS |
       lDlsuk th us Hkkoksa vkSj fc"k;ksa dk oSfo/;iw.kZ lE;d p;u fd;k gS |mudh
jpukvksa esa uohurk  vkSj ekSfydrk ds n'kZu gksrs gSa | mUgksaus iqjkuh ckrksa dks Hkh u;s
oSKkfud –f"Vdks.k ds lkFk çLrqr fd;k gS | ekr`Hkwfe vkSj ekr`Hkk"kk ds çfr çse] jk"Vªh&
;rk dh Hkkouk] jk"Vªh; ,drk dh dkeuk vusd cky&xhrksa esa voyksduh; gS | mÙkjk&
[k.M vkSj fgeky; dh efgek dk xku fd;k x;k gS | fgeky; 'kh"kdZ dfork dh dqN
iafä;ka m)j.kh; gSa &
       Hkkjr eka ds jkteqdqV lk]
       lj ij tड़k    fgeky; |
       t; toku lk j{kd cudj]
       rRij  [kड़k    fgeky; |
        x.kra= &fnol] cky& fnol vkSj tUe&fnol lEcU/kh cky&dforkvksa dks
Hkh laxzg esa lfEefyr fd;k x;k gS | cPpksa dks vius tUe&fnu ij çlUurk dh v&
uqHkwfr gksrh gS | bl –f"V ls 'tUe fnol' dfork dk ,d va'k fo'ks"k:i ls mYys[kuh;
gS&    
       tUe fnol dh rqEgsa c/kkbZ]
       ft;ks    lSdड़ksa      lky |
       thou gks iy&iy vkufUnr]
       gks mUur    fur    Hkky |
       ç—fr vkSj tho txr dks Hkh lDlsuk th us viuh cky dforkvksa dk fo"k;
cuk;k gS | ftlls cPps ç—fr ls çse dj ldsa vkSj tho&tUrqvksa ls ifjfpr gks lds |
'fpfड़;k' 'kh"kZd jpuk dh ;s iafä;ka –"VO; gSa&
       nwj xxu ls vkrh   fpfड़;k]
       lcds eu dks Hkkrh  fpfड़;k |
       ehBh rku lqukrh    fpfड़;k]
       e/kqj Lojksa esa xkrh  fpfड़;k |
       i;kZoj.k&laj{k.k ds fy;s o`{kkjksi.k dk egRo crkrs gq;s cPpksa dks ikS/ks yxkus
ds fy;s Hkh çsfjr vkSj çksRlkfgr fd;k x;k gS&
       u;k o"kZ bl rjg euk,a]
       iw.kZ uxj uogfjr cuk,a |
       u;s&u;s fgrdkjh  ikS/ks]
       gj ?kj esa bl o"kZ yxk,a |
       dfo us egkiq:"kksa dk oUnu vfHkuUnu djrs gq, muds mTToy pfjr ls f'k{kk
xzg.k djus dh çsj.kk çnku dh gS | dqN iafä;ka mn~&/kj.kh; gSa&
       gs 'kh"kZ f'k[kj  vktknh ds]
       Lohdkj djks 'kr'kr ç.kke |
       gks loZJs"B cfynkuh   rqE]  
       Hkkjr Hkj esa gks Js"B  uke |




8
       cPpksa ds fu;fer fodkl esa vkn'kZ&fnup;kZ dk fo'ks"k egRo gS | vr% bl
fo"k; ij cky dfork dk l`tu jpukdkj us mi;qä le>k gS | mldk dFku gS &
       lqcg&losjs   mBuk csVk]
       gYdh dljr djuk csVk |
       dy dk i<k iqu% nksgjkvks]
       vkt gS i<uk utj fQjkvks |
       fQj 'kkyk dh djks rS;kjh]
       cSx <ax ls iqu% yxkvks |
       vkt ds oSKkfud vkSj yksdrU=kRed 'kklu ça.kkyh ds ;qx esa ckyd uohu
fc"k;ksa ij dsfUær dgkuh lquuk pkgrs gSa | mudk fuosnu gS&
       vkt lquk ,d ubZ dgkuh]
       pkan flrkjs ]  ijh lqgkuh |
       dku ids ;g lqurs&lqurs]
       ugha lqusaxs pqi tk   ukuh |
       vkt lquk ,d ubZ  dgkuh |
          fgUnh ds egRo dks Hkh dfo us js[kkafdr fd;k gS &
      Hkk"kk dEI;wVj dh fgUnh gS]
      ;g Loa; fl) gks tkrk  gS |
      fgUnh&ç;ksx ls lapkyu tc&
      Loa;    fl)  gks tkrk gS |
          lHkh dfork,a iBuh; ,ao Lej.kh; gSa | NUn&c)~rk ds dkj.k buesa xs;rk
dk xq.k fo|eku gS | buesa laxhrkRedrk Hkh gS | Hkk"kk ljy ,ao lqcks/k gS | 'kCnp;u
mÙke gS | rRle ifj"—r 'kCnksa ds vFkZ tkudj cPpksa dk 'kCn Kku Hkh c<sxk | iqLrd
ckydksa ,ao fd'kksjksa nksuksa ds fy, mi;ksxh gS |
          'eerk cky&xaxk' dh jpuk ds fy;s dfooj Mk-jkt lDlsuk c/kkbZ ds &
ik= gSa | mUgha ds 'kCnksa esa dgk tk ldrk gS &
       dfBu ikf.MR; çn'kZU]  
       ugha gS  cky & xaxk esa |
       vga ds liZ dk  na'ku ]
       ugha gS   cky&xaxk  esa |
       ;s liuks dk leiZ.k gS]
       tks Hkksyh vka[k us  ns[ks]
       fdlh dfo niZ d n'kZu]
       ugha gS    cky &xaxk esa |
         eSa jkt th ds mTToy jpukRed Hkfo"; dh eaxy dkeuk djrk gwa |

'fouksn okfVdk']                             fouksn pUæ ik.Ms; 'fouksn'
lh ƒå]lsDVj ts¼tkx`fr fogkj½                       iwoZ funs'kd]
 vyhxat                                     måçå fgUnh laLFkku y[kuÅ &
y[kuÅ & „„ˆå„†                                        mÙkj çns'k
eks-& ‹†ƒ‡‰ˆ…„‹å        




9

     mUur]mTToy]mÙkjk[k.M
Hkjr&Hkwfe]Hko&Hkwfr ç[k.M |
mUur] mTToy] mÙkjk[k.M |

ldy&lefUor]Je'kqfprke |
'kh"kZ&lq'kksfHkr]  Jax&'krke |
fojy&ouLifr] foJqroSHko]
ikou]iq.;&çlwu]  f'koke |

gfjr&fgeky;]fgeun[k.M |
mUur] mTToy] mÙkjk[k.M |

uUnk] u;uk]  iap&ç;kx |
Hkfä&Hkfjr]Hko&HkwfeçHkkx |
vUu&jRu vkiwfjr   vkaxu]
rjy&rjkbZ]    rq"V~&rM+kx |

riksfu"B ]riHkwfe ] çp.M |
mUur] mTToy] mÙkjk[k.M |

fxfjtk?kj] Jqr&Js"B  fogkj |
dfy;j] gsedq.M]  gfj}kj |
ije&çfrf"Br]prq"/kke&e;]
ikou&xaxk]   iqyd&çlkj |

/khj] /koy&/ot]/kjkç[k.M |
mUur] mTToy] mÙkjk[k.M |


'kkS;Z] lR;] 'kqfprk&laokl |
loZ/keZ]   leqnk;  lekl |
ikou&çse] ijLij& iwfjr]&
ewy lfgr] Je'khy çokl |

Hkzkr`Hkko] HkoHkfä  v[k.M |
mUur] mTToy] mÙkjk[k.M |



10
 dgka&dgka ] D;k&D;k






11
  ljLorh&oUnuk

'kkjns dqN bl rjg dk]vc eq>s ojnku ns |
fut pj.k esa cSBus dk]vYi lk  LFkku ns |
      lkfgR;&xaxk ls yckyc]
      efLr"d dks vkiwfrZ  ns |
      gks tuu lkfgR;   uo]
      ;g Js"Bre LQwfrZ   ns  |
xhr xaxk dks esjh]fur&fur u;s vk;ke ns |
fut pj.k esa cSBus dk]vYi lk  LFkku ns |






12

      gks l`tu lcls  vuwBk]
      çse dh  jl&/kkj  gks |
      'kCn gksa vkiwrZ jl  esa]
      v{kjksa esa   I;kj  gks  |
e/kq ljh[kk daB ns] jl&iw.kZ eaxyxku  ns |
fut pj.k esa cSBus dk]vYi lk  LFkku ns |


      R;kx&e; thou  feys]
      fufyZIr eu efUnj jgs |
      çse&iwfjr gksa opu lc]
      ftudks ;g ftOgk  dgs |
xa/k lk QSys txr esa]og eq>s ;'k&eku ns |
fut pj.k esa cSBus dk]vYi lk  LFkku ns |



   
13
       ,d loky
           
,d iq= us]fu'Ny eu ls]
fd;k firk ls ,d  loky |
fgUnw&eqfLye gksrs D;k gSa]
dHkh&dHkh D;ksa djsa ccky |

ikik cksys /keZ  vyx   gS]
dqN vkpkj ugha feyrs  gSa |
lkekftd dqN fu;e vyx gS]
ewy fopkj ugha  feyrs  gSa |







14

efUnj esa fgUnw   dh  iwtk]
efLtn esa eqfLyeh uekt |
fgUnw j[ksa vusdksa],d ekg ds&]
jksts j[krk ] rqdZ   lekt |

'ikik efUnj' cksyk  csVk]
dk fuekZ.k ]djs  Hkxoku  \
;k fQj jpuk gj efLtn dh]
vkdj [kqn djrk  jgeku  \

lc /kehZ  etnwj &  feL=h]
fey dj budks ;gka cukrs |
cu dj iwjk] gksrs gh D;ksa]
nksuksa vyx&vyx gks  tkrs |






15

fgUnw dgrk bZ'k   ,d  gS]
eqfLye dgrk  ,d [kqnk |
tSu]ckS) vkSj fl[k]bZlkbZ]
feydj Hkh D;ksa jgsa  tqnk |

cPps ge lc ,d firk ds]
uk iwtk ?kj ,d cukrs  |
gelc ds R;ksgkj vyx D;ksa]
feydj ge D;ksa ugha eukrs |

bZ'k firk tc ,d  lHkh dk]
fQj ruko dh ckr dgka  gS |
lcdk bZ'oj ,d  txr  esa]
lcdh /kjrh ,d  tgka   gS |







16
jä ,d lk] 'kDy  ,d lh]
lc dgrs  ge  fgUnqLrkuh |
cPps feydj xys vkt lc]
Hkwy tk;a gj  ckr  iqjkuh |

Hkkjr ds cPpksa  dks feydj]
dke vHkh bruk  djuk gS |
,d u,  vkn'kZ ns'k   dks]
ge lcus feydj jpuk gS |







17
   
      fgeky;
Hkkjr eka ds jkt eqdqV lk]
lj ij tM+k fgeky; |
t; toku lk j{kd cu dj]
rRij [kM+k fgeky; |

vfojy nsdj uhj unh dks]
djrk Hkfjr fgeky; |
[ksr mxyrs lksuk ftlls]
djrk gfjr  fgeky; |







 18
>sy jgk cQhZyh vka/kh]
b/kj  u vkus   nsrk&]
d"V lHkh vius Åij gh]
fcuk dgs  ys  ysrk |

fdUrq ugha ge thus nsrs]
bldks  thou   bldk |
/khjs&/khjs vax Hkax  dj-
dqrj&dqrj ru bldk |

dle ,d lc feydj [kk,a]
gjk&Hkzjk ge bls cuk,a]
ysrk ugha dHkh cl nsrk]
Lof.kZe bldk  :i cuk,a |










 19
 ugha le>rs de            
ge lwjt vkSj rkjs ge]
[kqn dks ugha le>rs de |
la'k; vxj fdlh ds eu esa]
vkdj gesa fn[kkys ne |

ge Hkkjr dk eku j[ksaxs]
Åaph bldh 'kku j[ksaxs |
>.Mk gS igpku gekjh]
>.Ms dk lEeku  j[ksaxs |








20
rwQkuksa dks jksdsaxs ge]
[kqn dks ugha le>rs  de |
la'k; vxj fdlh ds eu esa]
vkdj gesa fn[kkys ne |

tkr&ikar ls nwj jgsaxs]
çse&Hkko Hkjiwj   j[ksaxs |
fdrus cM+s inksa ij igqapsa]
uk lÙkk en~&pwj jgsaxs |

uk /kks[kk nsa] uk [kk,a ge]
[kqn dks ugha le>rs de |
la'k; vxj fdlh ds eu esa]
vkdj gesa fn[kkys ne |






21

fo'o xq: Hkkjr cu tk,]
tu&x.k&eu dks xys yxk, |
dfBu ifjJe djds gh rks]
çtkrU= tu&tu rd tk, |

le vf/kdkj fnyk nsa ge]
ugha le>rs [kqn dks de |
la'k; vxj fdlh ds eu esa]
vkdj gesa fn[kkys ne |




 

22
vkt lquk ,d ubZ dgkuh
                   
pkan& flrkjs] ijh&lqgkuh]
,d Fkk jktk],d Fkh jkuh |
dku ids ;g lqurs&lqurs]
ugha lqusaxs]pqi tk  ukuh |
vkt lquk ,d ubZ dgkuh |







23
Hkkjr dk bfrgkl  crk ns]
v'oes/k D;k Fkk  crykns  \
Hkkjr dk fdl ij 'kklu Fkk]
D;ksa VwVk lkezkT;  crkns  \
fdl Lrj ij Fkh ukdkeh]
o"kZ vkB lkS lgh xqykeh  \
vkt lquk ,d ubZ dgkuh |

lksus dh fpMf़;k dgyk;k]
txR&xq: dSls cu ik;k  \
/keZ ;gha ij dSls  tUes]
fQj foLrkj dgka ls ik;k  \
u"V gqvk lc fQj Hkh viuh]
cph laL—fr  jgh iqjkuh  \
vkt lquk ,d ubZ dgkuh |







24
lHkh {ks= esa Fkk tc U;kjk]
dgka x;k bfrgkl  gekjk  \
eqxyksa]vaxzstksa ls igys]
Fkk Hkkjr  lkjk  ukdkjk  \
gok egy Fks D;k lc Kkuh]
;k Fkk lkjk gh  vKkuh  \
vkt lquk ,d ubZ dgkuh |






25
 cky&fnol ij lquys ukuh
                     
cky&fnol ij lquys ukuh |
dle rq>s tks ckr u ekuh |
ubZ dgkuh dg vutkuh ]&
djks [kRe ;g jktk&jkuh |

vktknh dh dFkk lqukvks |
Hkxrflag D;k Fks crykvks  \
>kalh dh jkuh dSlh Fkh]
mldh iwjh dFkk crkvks \
dgka yM+h Fkh og ejnkuh]
djks [kRe ;g jktk&jkuh |








26
lkojdj D;ksa tsy x;s Fks  \
Loa; tku ij [ksy x;s Fks |
vlg;ksx dk eryc D;k Fkk]
Hkjus D;ksa lc tsy x;s Fks  \
D;ksa iM+rh Fkh ykBh [kkuh  \
djks [kRe ;g jktk&jkuh |


feyh ;q) fcu D;ksa vktknh  \
D;ksa iguh Fkh lcus [kknh  \
yksxksa us D;ksa NksM+k oSHko ]
thou 'kSyh D;ksa dh  lknh  \
D;ksa lcus ejus  dh Bkuh ]
djks [kRe ;g jktk&jkuh |


cky&fnol dSls ;g vk;k | \
fdlus bldks çFke euk;k  \
bl fnu dks fdlus cPpksa dk]
viuk fnu ?kksf"kr dj ok;k  \
dg dyke dh dFkk&dgkuh]
djks [kRe ;g jktk&jkuh |








   27

  jfookj vk;sxk            
fnu dh HkkxnkSM+ ls Fkd dj ]
lwjt tc ?kj tkrk |
pUnk] ysdj cgqr flrkjs]
uHk esa fur vk tkrk |

vka[k&fepkSyh D;kS gksrh ;g ]
le> ugha eS ikrk |
vkSj u le>sa eka&ikik Hkh]
Hk¸;k pqi jg tkrk |







28
,sd fnol tc nknk&nknh ]
gels feyus vk;s |
eSus lkjs ç'u lkeus ]
muds ;g nksgjk;s |

lqu dj nknk&nknh cksys ]
dkj.k cgqr ljy gS |
lwjt dks ?kj Hkstk tkrk]
ykuk mldks dy gS |

uk tk;s tks ?kj ij lwjt ]
dy dSls yk;sxk |
NS% dy chrsa rcgh Hk¸;k]
Nqêh jfo yk;sxk |






29






33

 lwjt rqe D;ksa jkst fudyrs
                 
lwjt rqe D;ksa jkst fudyrs]
Nqêh dHkh ugha D;ksa tkrs |
lkrksa fnu Nqêh ij jg dj]
fu;eksa dh D;ksa ºlha mM+krs |

Hkksj gqbZ eka fpYyk mBrh ]
mB csVk lwjt mx vk;k&]
vka[ksa [kksyks >I&>i tkrha]
fldqM+ fleV vylkrh dk;k |







34
flQZ rqEgh gks ftlds dkj.k]
uhan ugha iwjh gks ikrh]
Dykl :e esa cSBs&cSBs ]
vupkgs >idh vk tkrh |

lwjt rqe Lokeh gks lcds]
fu;eksa dk dqN ikyu djyks |
,d fnol cl lkseokj dks]
Nqêh rqe fu/kkZfjr djyks |

ugha mxs rks Nqêh viuh]
l.Ms lax e.Ms dh gksxh]
thHkj lks ys nks fnu rd rks]
fQØ ugha M.Ms dh gksxh |







35
laHko uk gks fdlh rjg ;s]
bruk rks rqe dy ls djuk]
FkksMk lks ysa vf/kd nsj ge]
dy ls rqe ukS cts fudyuk |




         

36
      nqf[k;ksa ij n;k

i'kqvksa ij n;k ugha ftldks]
og i'kqor gS bUlku  ugha |
viukiu i'kq ls j[krk gks]
og gh ekuo] balku ogh |

nsdj n/khfp us vfLFk&nku]
ekuodqy dk dY;k.k fd;k |
f'kfo us cgsfy;s fu"Bqj  dks]
[kx j{kk esa futekal fn;k |






37
tks dke vkSj ds vk  tk;s]
yxrk gS rc Hkxoku ogh |
viukiu i'kq ls j[krk gks]
og gh ekuo] balku ogh |

egkjkt jfUrnso us viuk]
Hkkstu rd lcdks ns Mkyk |
Hkxoku cq) us nq[kgj.k gsrq]
,d u;k /keZ gh jp Mkyk |

lEiw.kZ jkT; vkSj oSHko dk]
le>k d.kHkj Hkh ewY; ugha |
viukiu i'kq ls j[krk gks]
og gh ekuo] balku ogh |







38
bZlkelhg us vkxs c< dj]
lans'k fn;k Fkk turk  dks |
rhFkaZdj egkohj Jh Lokeh us]
Fkk Js"B dgk bl {kerk dks |


ftrus Hkh egkiq#"k tx ds]
dgrs  jgrs Fks ckr  ;gh |
viukiu i'kq ls j[krk gks]
og gh ekuo] balku ogh |

xka/kh us bl ;qx esa vkdj]
bl n;k Hkko dks viuk;k |
vkn'kZ cus bl ds dkj.k ]
ftldks tx Hkj us viuk;k |






39
mUufr dk gS ;g ewyea= ]
la'k; blesa gS ugha  dgha |
viukiu i'kq ls j[krk gks]
og gh ekuo] balku ogh |






40
          rhuksa cUnj          
xka/kh th ds rhuksa cUnj ]
cSBs cky&ikdZ ds vUnj |
lq[kdjthou dks thus ds]
ckaV jgs gSa lcdks eUrj |

gkFk dkuij j[kdj Hkksyk]
ge lcls ;g eUrj cksyk |
ugha fdlh dh lquks cqjkbZ]
lq[kh jgksxs jkt ;s [kksyk |







41
gkFk vka[k ij j[kdj HkkbZ]
dºrk ;g er ns[k cqjkbZ |
vPNk vPNk lcdqN ns[kks]
ugha fdlh ls Bus yड़kbZ |

eq[k ij gkFk j[ks tks jgrk]
gkFk gVk dj ge ls dgrk |
eSa eUrj ;g crk jgk gwa ]
cqjk u cksys lq[k ls jgrk |

ckiw us ;g lw=    lq>k;s ]
cUnj rhu çrhd  cuk;s |
lR;]'kkfUr]lq[k jgs ges'kk]
buds ek/;e ls fl[kyk;s |








42
      tUe&fnol            
tUe fnol dh rqEgsa c/kkbZ]
ftvks     lSdM+ksa     lky |
thou gks iy&iy vkufUnr]
gks   mUur   fur   Hkky |

VwV dj lq[k&le`f)  cjls]
ou miou lk thou egds |
dgha 'kksd dh  iM+s u Nk;k]
eu dk i{kh [kqydj pgds |






43

thou gks iy&iy vkufUnr]
nksLr     Qqyk,a     xky |
tUe fnol dh rqEgsa c/kkbZ]
ftvks     lSdM+ksa     lky |

nqfu;k ds ,s'o;Z çkIr   dj]
f'k{kk  ds çfreku çkIrdj |
,d lQy O;fäRo cuks rqe]
gSa ftrus lEeku  çkIr dj |

'kfä rqEgsa ns bZ'oj   bruh]
jD[kks   bUgsa      lEgky |
tUe fnol dh rqEgsa c/kkbZ]
ftvks     lSdM+ksa     lky |







44
cSj   fdlh ls dHkh cus uk]
laDV vk;s  fdUrq fVds  uk |
LoLFk vkSj lEiUu jgks rqe]
gksBks ls] eqLdku  feVs  uk |

Øe'k% gksrs   tk,a   dj ls]
fur&fur u;s      deky |
tUe fnol dh rqEgsa c/kkbZ]
ftvks     lSdM+ksa     lky |





45


 vkn'kZ fnu&p;kZ            
lqcg    losjs mBuk csVk]
gYdh dljr djuk csVk |


dydk i<+k iqu% nksgjkvks]
vkt gS i<+uk utjfQjkvks |
fQj 'kkyk dh djks rS;kjh]
cSx <+ax ls iqu%  yxkvks |







46
iwjh Mªsl igu dj vkvks]
cSx Vkax dU/ks ij  tkvks |
iafäyxk cl esa rqe p<+uk]
iafä cuk 'kkyk esa tkvks |

d{kk esa rqe /;ku yxkdj]
eu i<us esa iw.kZ tekdj |
uksV djks tks uksV djk;sa]
vyx vyx x`gdk;Z yxkdj |

gks Nqêh er nkSM+ yxkvks]
yxk iafä cl es p<+ tkvks |
?kj  vk,  vkjke ls mrjks]
nksuks vksj ns[k ?kj   tkvks |







47
ysdj dqN rqe eka ls [kkvks]
/kek&pkSdM+h  ugha epkvks  |
lquks ckr Hkh tks og dgrh]
gksdj ÝS'k [ksyus  tkvks |

[ksy [kRedj okil vkvks]
x`g dk iw.kZ dk;Z fucVkvks |
[kkuk [kk fcLrj ij tkvks]
djks cUn vka[ksa lks tkvks |








48
vfojy Vwj cuk,xk          
eka ifg;s yxokys ?kj esa]
lpy Hkou gks   tk,xk |
ikik j[kysa ,d Mªkboj ]
tks gj txg    ?kqek,xk |







49
LVs'ku]cl vìs lcdh]
cpsaxs     ekjk&ekjh ls |
iUn~gZ fnu rd gksusokyh]
Fkdu Hkjh     rS;kjh ls |
iwlh]Vkeh]feëw ds lax ]
Nqêw pwgk       tk,xk |
vfojy Vwj     cuk,xk |

ikik&eEeh lkFk   jgsaxs]
nhnh  lkFk      fuHkk,xh |
nknk&nknh NwV u   ik,a]
ukuh      Hkh vk tk,xh  |
I;kjk Hk¸;k vtqZu  esjk]
lkFk ?kwe dj    vk,xk |
vfojy Vwj     cuk,xk |






50

ysg vkSj yík[k ?kwe dj]
Jh&uxj    ge   tk,axs  |
ogka x, rks vejukFk ds]
n'kZu  Hkh   dj   vk,axs  |
>>aV ugha xjeikuh dk]
xhtj lkFk   fuHkk,xk |
vfojy Vwj     cuk,xk |

t;iqj ls vtesj ?kwedj]
tk;saxs ge fnYyh    dks |
dukV Iysl ij pkV~idkSM+h]
yk nsa iwlh    fcYyh dks |
mldks [kkrs ns[k HkkSad&dj ]
Vkeh   'kksj    epk,xk |
vfojy Vwj     cuk,xk |







51

y[kuÅ viuk ns[kk&Hkkyk]
dukZV~d gks      vk,axs |
fo/kkulHkk dSlh yxrh gS]
QksVks   ogka    f[kapk,axs |
feëw rksrk djs ueLrs ]
Nqêw Hkh    fpafp;k,xk |
vfojy Vwj     cuk,xk |

lh/ks&lh/ks dsI&deksfju ]
dU;kvUrjhi ij tk,¡   |
cSB foosdkuUn f'kyk ij]
jk"Vª&xhr Hkkjr dk xk;sa  |
fcuk#ds ?k Z lh/kk okil]
"nwjkUrks"  lk   vk,xk
vfojy Vwj     cuk,xk |






52

       tUek ,d flrkjk
t; toku]t; fdlku dk]
fn;k    ns'k    dks ukjk |
xka/kh th dh tUe frfFk dks]
tUek ,d    /#O&rkjk |

yky cgknqj uke Fkk mldk]
fu/kZure      ?kj&}kjk |
unh mQurh  rSj&rSj dj]
'kkyk     x;k  fcpkjk |







53

ru dk Fkk fucZy ysfdU]
eu   dk  cड़k lcy Fkk |
vkज़knh ds  egk;q)  esa]
j[krk   Hkkx çcy   Fkk |

vkज़knh ds ckn eaf=  cu]
te  dj   ns'k   laokjk |
,d  jsy nq?kZVuk ij mlus]
R;kx fn;k     in&lkjk |

usg# dh  e`R;q ij mlus]
ç/kku&eaf=   in  ik;k |
,d fnol Hkkstu R;kxsa lc]
R;kx &ea=     fl[kyk;k |







54

>qd pyrh Nksड़ uhfr;ka]
l[r   :i    viuk;k |
geys ij ikdh  lsuk  ds]
jkSæ &  :i    fn[kyk;k |

le>kSrs dh ckr :l  us]
dj us  mUgsa     cqyk;k |
irk ugha D;k gqvk ogka ij]
yky   u okil   vk;k |

vkt t:jr iqu%   rqEgkjh]
Hkkjr esa    fQj ]  vkvks |
dn NksVk ij dke cड़k rqe]
'kkL=h   th   dj   tkvks |







55

       x.krU= gekjk            
fHkUu lHkh ls lcls U;kjk]
Hkkjr dk x.krU= gekjk |
cuk fo'o esa Js"B lHkh ls]
gesa tku ls gS ;s   I;kjk |







56

26 tuojh dk Lof.kZefnu]
ysdj [kqf'k;ka vk;k vufxu |
bl fnu ls eqMdj u ns[kk]
 djrk ns'k rjDdh  çfr&fnu |
ns[k jgk fofLer tx lkjk]
Hkkjr dk x.krU= gekjk |

vafretu rd fd;k lezfiZr]
fd;k ç'kklu tu dks vfiZr |
nfyr&'kksf"krksa dks fu;eksa ls]
feyha 'kfä;ka Js"B  vdfYir |
gj ?kj rd igqaph ;g /kkjk]
Hkkjr dk x.krU= gekjk |







57

gqbZ 'kfä;ka laoS/kkfud ]
fyf[kr gksx;ha os vf/kdkf/kd |
lafo/kku vfrJs"B cuk dj]
laln ls djok;k     ikfjr |
tx esa T;ksa pedk /#o rkjk]
Hkkjr dk x.krU= gekjk |

'kklu tu dk tu ds }kjk]
gS l'kä tuçfrfuf/k gekjk |
fu;e cukuk]jkt pykuk ]
laln esa fleVk cy  lkjk |
'kkld&'kklu lHkh laokjk ]
Hkkjr dk x.krU= gekjk |






58
 
   VªSfQd :Yl crk,a            
vkvks cPpksa [ksy f[kyk,a |
pyuk lM+dksa ij fl[kyk,a |
pysa lM+d ij vxj fu;e ls]
rHkh lqjf{kr thou ik,a |

pysa lM+d ij vius cka, |
fcuk t:jr ikj u tkऍ |
cka,&nka, jgsa   ns[krs &]
ltx jgsa vkSj pyrs tk,a |






59

djuk ikj ] fज़czk ij tk,a |
ns[ksa vius ] nk,a& cka, |
#drk VªSfQd gksrk flxuy]
lM+d Økl rc ge dj ik,a |
eu ethZ u dHkh pyk,a ]
rHkh lqjf{kr thou ik,a |

,d iafä gj txg fy[kh gS |
nq?kZVuk  ls  nsj   Hkyh gS |
gcM+&rcM+ djrh nq?kZVuk ]
txg&txg ij ekSr [kM+h gS |
flxuy ikyu lk/; cuk,a |
rHkh lqjf{kr thou ik,a |








60
LoxZ&yksd dk fVdV dVkuk |
Mªkbo djrs]  Qksu  mBkuk |
feys vxj vtsZUV dky rks]
#dks ogha rc Qksu  mBkuk |
djds viuh xkM+h    cka, |
rHkh lqjf{kr thou ik,a |






61
fpfड़;k
nwj xxu ls vkrh fpMf़;k |
lcds eu dks Hkkrh fpMf़;k |
ehBh rku lqukrh fpMf़;k&]
e/kqj Lojksa esa xkrh fpMf़;k |

vkaxu esa vk tkrh fpMf़;k |
Qqnd&Qqnd mM+ tkrh fpMf़;k |
fn[ks vUu  dk  nkuk dksbZ]
Bhd ogha ij tkrh  fpMf़;k |







62
vk dj ukp fn[kkrh fpMf़;k |
fQj lh<+h p<+  tkrh fpMf़;k |
vkxs & ihNs  eka ds  tkdj ]
mudk eu cgykrh  fpMf़;k |

fQj djrc fn[kykrh fpMf़;k |
pksap esa nkuk   ykrh fpMf़;k |
igqap ?kksalys uotkr cqykdj&]
nkuk mUgsa f[kykrh  fpMf़;k  |

eka dksbZ gks] i'kq ;k fpMf़;k |
cPps   'kSrkuh   dh iqMf़;k |
nsrs dqN nq[k viuh eka dks ]
eka lcdqN lg ysrh nqf[k;k |







63

         foKku&dq.Mfy;ka
xkड़h ij mYVk fy[kk] ,Ecqysal D;ksa fe= |
vkxs  xkड़h tk jgh] feys fejj dks fp= |
feys fejj dks fp=] lnk   mYVk vk,xk ]
lh/kk fy[k nsa vxj]  i<k   dSls tk,xk |
dgs'jktdfojk;']  blh ls mYVk fy[krs]
cSdO;q fejj esa ns[k] mls ge lh/kk i<rs |









 64      
tys cYc fLopvku ls]Vîwc yxk;s nsj |
iIiw ds efLr"d esa]?kwe jgk  ;g Qsj |
?kwe jgk ;g Qsj] lquks iIiw   foKkuh]
Vîwc fctyh ds e/;]pksd LVkVZj Kkuh |
dgs'jktdfojk;']igqaprh tc nksuksa  esa]
ysrh Fkksड़h nsj ] blh ls og mBus  esa |










 65        
iIiw ekjs gkFk] le> esa dqN u vkrk |
D;ksa vkrk gS Tokj]vkSj D;ksa vkrk HkkVk |
vkS ZD;ksa vkrk HkkVk]ygj ;wa curh D;ksa gS]
Åaph mBrh ygj]iqu% fQj fxjrh D;ksa gS |
dgs'jktdfojk;'xq#Ro/kjk pUnk ls T;knk]
blh otg ls fuR;]Tokj vkSj HkkVk vkrk |












66
         
iIiw fÝt tc [kksyrk]Ýhtj Åij gks; |
lc esa Åij ns[kdj]flj /kquuk gh gks; |
flj/kquuk gh gks;][ksy ;s le> uvk;k ]
Ýhtj Åij cuk jgk gS]gj fÝt  okyk |
dgs'jkt'gok xeZ] uhps ls Åij mBrh]
Åij Ýhtj ls Vdjkdj] BaMh gks  tYnh |










67
         
i`Foh vius v{k ij] >qd lk<s  rsbZl |
djrh gS og ifjØek]fxu dj iwjh rhl |
fxudj iwjh rhl]_rq cnys lw;Z fdju ls]
e/;] edj] ddZ js[kk ij pky cny ds |
dgs'jktdfojk;'] xeZ&BaMh ;k re ns[kks]
lh/kh iड़rh xeZ ] ugh rks BaMk Øe ns[kks |













        68  
xje djks tc nw/k dks]mQu fljs ls tk; |
ikuh ftruk Hkh djks] uk mQus ty tk; |
uk mQus ty tk;] Hksn ;g le> uvk;k]
iIiw us ikik dks] viuk ;g ç'u  crk;k |
dgs'jkt'nw/k esa terh ijr Hkki u fudys]
vUnj HkHkds  Hkki] nw/k lax ysdj mQus |













  69
 /kedh nsdj      
   cuk nks ;g lEHko gs jke |

/kedh nsdj Malrs dSls]
;s  ePNj       cnuke |
dku vxj feyrs gkFkh ls]
fdrus      vkrs    dke |
             cuk nks ;g lEHko gs jke |






70

;fn ftjkQ lh xnZu gksrh]
ge   [ktwj   [kk    vkrs]
lcls Åaph Mky is yVdk]
lsc     rksM+ dj   [kkrs |

?kj esa        cSBs&cSBs [kkrs]
Nr        ij iM+s cknke |
              cuk nks ;g lEHko gs jke |

lkjl lh Vkaxsa fey tkrha]
vksyfEid    esa        tkrs ]
ind thrdj lHkh nkSM+ ds]
ge     Hkkjr     tc vkrs |

,jksMªe ij djus vkrs]
gedks    lHkh  lyke |
              cuk nks ;g lEHko gs jke |






71

isV tks feyrk ÅaV ljh[kk]
 tc nkor es tkrs]
iUæg fnu dk [kkuk [kkd]Z
?kj okil ge vkrs |

g¶rksa&g¶rksa djrs jgrs]  
 ?kj esa gh vkjke |
              cuk nks ;g lEHko gs jke |

cUnj tSlh rjy piyrk]
FkksM+h lh ik   tkrs ]
Nhu dpkSM+h eka ds dj ls]
cSB isM+ ij   [kkrs |

cnys esa eka dks yk nsrs]
ids Mky ds   vke |
              cuk nks ;g lEHko gs jke |







72

x:.k ljh[ks ij fey tkrs]
fo'o ?kwedj vkrs]
fnYyh ls U;q;kdZ eq¶r esa]
fuf'kfnu vkrs&tkrs |

,;j fVfdV u ysuk iM+rk]
[kpZ u  gksrs nke |
              cuk nks ;g lEHko gs jke |









 73
dSlk ekek fdldk ekek
                                 
dSlk ekek fdldk ekek]
pank yxrk fdldk ekek  |

D;k ekek /kjrh ij vk;k ]
D;k vkdj gedks nqyjk;k ]-
lkFk ys x;k dHkh xxu esa]
rkjk eaMy Hkh fn[kyk;k !

>wB cksyrs [kk &eks &[kkek]
dSlk ekek fdldk ekek !








74

dHkh ugha cktkj ?kqek;k]
dHkh ugha fiTtk f[kyok;k]
u cUnj lh [kksa&[kksa djds]
tc jksrs ge dHkh galk;k !

fQlys rks uk cktw Fkkek]
dSlk ekek fdldk ekek !

dHkh ugha taxy fn[kyk;k]
uk Hkkyw ls dHkh feyk;k]
fx¶V ugha dksbZ fnyokbZ]
ugha dFkk fdLlk lquok;k !

uk <iyh u lk js xk ek]
dSlk ekek fdldk ekek !







75

ekek ds lax cq<f़;k vkrh ]
lkFk ,d pj[kk  Hkh ykrh]
gesa ubZ ukuh fey tkrh]
ekSt gekjh rc c<+ tkrh !

[kknh dk  flyrh iktkek]
dSlk ekek fdldk ekek !

ekek gS rks vc Hkh vk;s]
vius jFk ij gesa fcBk;s]
nwj xxu dh lSj djkdj]
vPNh&vPNh dFkk lquk;s !

vkSj vf/kd u ns vc >kek ]
dSlk ekek fdldk ekek !







76

    ;s rkjs lc [kksVs
                 
,d fnol rkjs lc feydj]
pank ds ?kj  vk;s |
pank dh eEeh ls lcus]
ehBs cksy lquk;s |

eEeh rqe pank HkS;k dk]
/;ku ugha dqN j[krha]
bruk cM+k gks x;k fQj Hkh]
C;kg ugha D;ksa djrha |







77

D;ksa cw<k djrha HkS;k dks]
tYnh C;kg  djk nks |
lqUnj lh ,d ubZ uosyh ]
mldks nqYgu yk nks |

pUnk dh eEeh lqu cksyh]
dSls C;kg  djknwa |
?kVs c<s tks jkst  blh lh]
nqYgu dSls yk nw¡ |

fnol vekol dk tc gksxk]
dSls lcj djsxh |
lkFk blh ds og dksey Hkh]
gj {k.k lQj djsxh  |








78

;s gS iq#"k fu;fr gS bldh]
vtc  [ksy  ;g [ksys |
ij tks ca/ks lkFk esa  blds]
og D;ks¡ ;g lc >sys |

lqu larq"V gq, rkjs lc]
vius ?kj lc ykSVs |
pUnk us ek¡ ij Hksts Fks]
;s rkjs lc [kksVs |











79

       xkSj¸;k
igys Hkksj gekjs vkaxu]
vk tkrh Fkh ,d xkSj¸;k |
cgqr fnuksa ls ugha nh[krh]
?kj esa vkrh og xkSj¸;k |

cpk jkr dk vUu iड़k tks]
Qqnd&Qqnddj og [kktkrh |
dHkh vxj T;knk fn[krk rks]
og ifjokj cqyk ys  vkrh  |

pkjksa vksj ?kqek dj xjnu]
>V ls pksap pyk tkrh Fkh |
,d fdukjs ls Qqndh vkSj]
Nksj nwljs   vk  tkrh Fkh |









80

uUgs&uUgs  cPps   mlds]
mldh  rjg Qqnd tkrs Fks |
udy mlh dh dj vkaxu esa]
?ka.Vksa [ksy  fn[kk  tkrs Fks |

cgqr fnuksa ls vkl&ikl Hkh]
ugha fn[k jgh  og xkSj¸;k |
eka ge ls dqN Hkwy gqbZ D;k]
D;ksa ukjkt  gqbZ   xkSj¸;k |









 89
             
      gfjr cuk,a
iIiw]fVYyw]dYyw] jktk |
u;k [ksy ,d [ksysa vktk |
uk rqjgh]uk rcyk dqN Hkh]
uk 'kgukbZ uk  dksbZ cktk |

u;k o"kZ bl rjg  euk,a |
iw.kZ uxj uo gfjr cuk,a |
u,&u, fgrdkjh  ikS/ks&]
gj ?kj esa bl o"kZ yxk,a |







90

gj ?kj esa Qynkj o`{k gks |
ftldk gj jlnkj i{k gks |
gj cPpk nl isM+ yxk,&]
ge lcdk blckj y{k gks |

rhu o"kZ esa tc Qy vk,a |
[kqn [kk,a fe=ksa dks f[kyk,a |
ikl iM+kSl esa ckaVsa lcdks]
lcdks lqUnj LoLFk cuk,a |










   91
       rqedks fuf'pr djuk gS
thou iFk ij pyus ls igys ]
y{; rqEgsa  vc  pquuk  gS |
djyks fuf'pr cuus  ls igys ]
D;k rqe dks vc  cuuk  gS |

ohj lqHkk"k cuksxs   ;k  rqe]
cuksxs  ohj   f'kok  th  ls |
;k   fQj jktLFkku& ds'kjh]
pkgks  dqN  jk.kk  th   ls |







92

jkerhFkZ  cuuk  pkgksxs] ;k&
Hkxr  flag  erokyk   rqe |
l?ku lk/kuk dj   ehjk lh]
pkgks   fc"k  dk I;kyk  rqe |

vxj pkgrs    usrk   cuuk]
yky  cgknqj   lk    Hk¸;k |
ns  dj  tku  cpk;k ftlus]
Hkkjr   dk xkSjo     Hk¸;k |

dgks cuksxs D;k rqe  cPpks ]
vHkh djks ;g fuf'pr   rqe |
ojuk cgqr    nsj  gks  tk,]
fQj dc  dj  ikvksxs  rqe |














93
       cky fnol
cky fnol gS vkt ns'k esa]
cPpksa dk R;ksgkj euksgj |
tUe fnol pkpk usg# dk]
ge cPpksa dh iq.; /kjksgj |

cPpksa ls pkpk usg# dk]
vUreZu ls I;kj jgk Fkk |
gj xjhc cPps ls mudk]
eu ls tqM+k yxko jgk Fkk |






95
cPpksa dh mUufr dks ysdj]
dbZ ;kstuk ysdj   vk;s |
ftlls cPpksa ds thou esa]
[kqf'k;ka gh [kqf'k;ka Hkj tk;sa |

nwj xxu ij cSBs   pkpk]
gesa vkt Hkh ns[k jgs  gSa |
cPpksa dk tks [okc cquk Fkk]
mldks  Qyrk ns[k jgs gSa |










96
vHkh fn[krk gS viukiu &
gesa dfork ls fj'rs esa |
>ydrk gS vtc mUekn&
 tSlk bu cfg'rksa esa |
u;s dfo vkt tSls &
Nw jgs gSa lw;Z dks tkdj ]
cgqr lEHkkouk,a fn[k&
 jgh  gSa  bu Qfj'rksa esa |
         &å&


iqjkuh yhd ij  pyuk&
 dHkh  gedks  ugha  Hkk;k |
foxr xq.kxku ls dqN Hkh&
fdlh dks fey ugha ik;k |
u;s iFk ge  ryk'ksaxs&
f'k[kj dh vksj tkus ds &]
j[ks gkFkksa dks gkFkksa ij &
dHkh dqN  fey ugha  ik;k |







97        
mBks mB dj ryk'ksa ge&
ubZ lEHkkoukvksa  dks |
djsa th rksM+dj ge vc&
ubZ fur lk/kukvksa dks |
ljythou]l?kuoSHko]&
vf/kd vkjke rych Hkh]
gVkdj vius thou ls&
feVk nsa oklukvksa   dks |
           &å&
gekjs fny esa iqj[kksa dk&
vHkh Hkh [okc ckdh gS |
blh ls vka[k esa viuh&
 g;k dh  vkc ckdh gS |
eqgCcr mB xbZ 'kgjksa ls &
ysfdu xkao esa vc Hkh]
iqjkuh jLe ftUnk gS&
vnc&vknkc   ckdh  gS |








98          
mnj esa vklekuksa ls&
 lgstk cUn vcjksa dks |
mrj xgjkbZ esa fny dh&
 dqjsnk dqUn[kcjksa dks |
çloihM+k lgh tks"jkt"&
mldh Vhl lg&lg dj]
fupksM+k nnZ fny dk rks&
jpk gS pUn lrjksa dks |
            &å&



 

 
99
     le; &pØ
fudy jgk gS ,d&,d iy]
vius   thou ls gj {k.k |
fc[kj jgk gS le; chrrk]
T;ksa vuUr fc[kjk d.k&d.k |


lkFk le; ds pydj rqeus]
vxj le; dks  Fkke  fy;k |
euekfQd mUufr ds iFkij]
le>ks thou  Mky   fy;k |







100
bl vueksy le; dh dher]
tc Hkh rqe      igpkuksxs |
thou esa tks   dqN  pkgksxs]
fcu  ekaxs   og  ik   yksxs |


O;FkZ xaok;k  le; vxj rks]
fQj iNrkuk   O;FkZ  jgsxk |
dksbZ rqEgsa  u f/kDdkjs  ij &]
[kqn dh  rks f/kDdkj  lgsxk |


mBks le; ds lkFk pyks vc]
O;FkZ  u  chrs  le; dgha |
Bhd le; ij Bhd txg ij]
dke laokjs ]  lgh   ogh |







101
    dFkk 'kghn m/keflag~              
bdÙkhl     tqykbZ     çfro"kZ]
ge dks dqN ;kn fnykrh gS |
,d vejdFkk cfynkuh dh]
vk u;uksa esa cl tkrh gS |

iatkc çkar dk lquke xzke]
gks x;k /kU; —R—R; gqvk |
ukjk;.kdkSj lqekrk us]
tc 'ksjflag dks tUe fn;k |





102
Fkk fnol fnlEcj dk NfCol]
fuUukucs vëkjg lkS lu Fkk |
firk Vgyflga mNy iM+s]
tc iq= tUe lans'k lquk |

vYik;q  esa ekrk      [kksdj]
ijofj'k   vukFkksa    esa ikbZ |
tc ve`riku Ndk    mlus]
rc uke m/ke ik;k    HkkbZ |

cpiu esa tfy;ka ckx gqvk]
vaxzstksa ls uQjr ekuh Fkh  |
Mk;j   ls    cn~yk    ysus dh]
eu esa mlus  fut Bkuh Fkh  |







103
baXyS.M x;s  vkSj ?kkr yxk]
vks Mk;j dk c/k dj Mkyk |
,d dhy Bksd dj 'kklu esa]
lkezkT; fczfV'k dks eFk Mkyk |

p<+ x;s [kq'kh ls Qkalh ij]
t; Hkkjr eka dh cksyh Fkh |
vius gh cy ls  flaºiq:"k]
jkº&,&vktknh [kksyh Fkh |

"dkEckst jRu] gs m/keflaº"]
rqe Hkkjr ds tu&uk;d gks |
rqe flaº&çlwrk Hkkjr&eka ds ]
gks x;s vej]og 'kkod gks |






104
    Hkk"kk dEI;wVj dh
Hkk"kk dEI;wVj dh fgUnh gS]
;g Lo;a  fl) gks tkrk gS|
fgUnh ç;ksx ls lapkyu &]
tc Loa; ljy gks tkrk gS|

;wa rks Hkk"kk dEi;wVj  dh]
dksbZ Hkh ugha fc'ks"k cuh|
ij fgUnh gh og Hkk"kk gS ]
tks DEI;wVj dks Js"V feyh|







105

dEI;wVj ds MkVklaxzg esa]
ftruk Hkh MkVk vafdr gS|
og nks vadksa dk [ksyek= ]
og nks vadksa ls fufeZr gS|

yxHkx feyrktqyrk gS ;º]
oSfnd &x.kuk ds jaxksa  ls|
gks tkrk lkFkZd osn&xf.kr ]
dEI;wVj dh lHkh rjaxksa ls|

;g fl) gks x;k gS Hkk"kk]&
dEI;wVj &ekud fgUnh gS|
fgUnh gh fo'oleUo; dh]
çks|ksfxd  Hkk"kk    fgUnh gS|






106
      o`{k u gksrs
o`{k u gksrs vxj /kjk ij]
lkspks rc   D;k   gksrk \
gksrh 'kq"d pV[krh /kjrh]
'kq"d e#LFky     gksrk \

gfj;kyh dk uke u gksrk]
fdruh eqf'dy    gksrh |
ftruh lqUnj vkt cuh gS]
,slh  dgha    u   gksrh |







107

isड़ u gksrs  dgka ls vkrh]
çk.k & ok;q   vkDlhtu \
dgka cSB dj  lqLrk ikrs]
jkgksa     ds  jkgh & tu |

fcuk isड़ ds Qy dSls fQj]
fdlh Mky    ij yxrs \
vxj u gksrk Qy mRiknu]
Qy dSls fQj    feyrs \

isड़ fcuk   i{kh  u gksrs]
dSls      uhड़   cukrs \
fcuk isड़ dk taxy Hk¸;k]
dSls    dgha              yxkrs \






108

isड़ u gksrs]ge cPpksa dk]
thou    nwHkj    gksrk \
fcuk c`{k ]ckfj'k u gksrh]
lc dqN  Ålj    gksrk !








109
       pUæ 'ks[kj vktkn                
gs 'kh"kZ f'k[kj vktknh ds]
Lohdkj djks 'kr'kr ç.kke |
gks loZJs"B cfynkuh rqe]
Hkkjr Hkj esa gks Js"Buke |

çkr% Lej.kh; f'k[kj'pUæ']
rqe lk cfynkuh dkSu cus |
lkS /kU;&okn ml ekrk dks]
tks ''ks[kj' tSlk yky tus |







110
gS vkt t#jr cl bruh]
rqe tSlk usrk  vk tk;s |
lM+ pqdh O;oLFkk Hkkjr dh]
'vktkn'bls og dj tk;s |

vorfjr rqjr gks tkvks rqe]
bl =kfg&=kfg dks nwj djks |
Hkkjr ekrk ds      ikSaN vJq]
Hkkjr Hkj dk dY;k.k djks |  










111
        uhड़ cuk;k
dgka lh[k dj vkbZ gks rqe]
dyk      fç;  xkSj¸;k |
bruk  lqUnj uhड़ cuk dj]
jgrh      gks    xkSj¸;k |

frudk frudk pqudj rqeus]
dyk & —fr    jp  Mkyh |
lcls   Åaph Mky lqjf{kr ]
ml   ij    ;g yVdkyh |






112

vUnj ckgj bls ltk dj]
dejs    rhu    cuk,  |
NksVs&NksVs xksy  }kj   Hkh]
bl esa    dbZ    cuk, |

lqUnj   lw[ks  iÙks   ysdj ]
rqeus    uhड़     ltk;k |
eu  djrk gS eSa Hkh jgywa]
ysfdu  igqap   u  ik;k |    








113
                        ek¡
           
ukeksa esa ek¡ dk Js"B uke]
LFkku lHkh ls mapk gS /
ekrk dk /kjrh ij vc Hkh]
lEeku lHkh ls Å¡pk gS /

/kjrh ij vkrs loZçFke]
gedks tks xys yxkrk gS |
nq%[k&nnZ lHkh dks Hkwy çFke]
pqEcu djus yx tkrk gS |


dkaVk pqHk tk;s gesa dgha]
 ge ls T;knk gks d"V mls]
ek¡ ,d 'kCn esa fleV çse]
gj txg vHk; ns tkrk gS |






114
;g uke gS tks gj ladV esa]
vkrk gS lcls iwoZ ;kn]
ladV gkjh]  dY;k.k ijd ]
;g /;ku lHkh ls Å¡pk gS |
ekrk dk /kjrh ij vc Hkh]
lEeku lHkh ls Å¡pk gS |
 

lqanj&dq:i]xank tSlk]
gj cPpk ml dks I;kjk gS]
vius ls T;knk le> mls]
ladV ls lnk mckjk gS |





115
çk.kksa ij ladV ns[kk rks]
yM+ x;h 'ksj ls fcuk 'kL= ]
j{kk djus dks cPpksa dh]
 e`R;q dks Hkh yydkjk gS |


bZ'oj us nqfu;k esa lksais]
lnuke Hkys gh fdrus gksa]
ij ek¡ :ih tks uke fn;k]
ojnku lHkh ls Å¡pk gS |
ekrk dk /kjrh ij vc Hkh]
lEeku lHkh ls Å¡pk gS   |



116
vc Hkkjr gS rqEgsa  cpkuk |


viuksa ls yqVfiV dj ge rks]
ugh fy[k lds u;k Qlkuk |
Hkkjr dh le`í laL—fr]
cPpks vc gS rqEgsa cpkuk ||

eph gqbZ gS [kqyh ywV tks]
dSls ml ij jksd yxsxh |
ckiw us tks liuk ns[kk]
oSlh nqfu;k dHkh feysxh \
117
lR;]vfgalk]çse ns'k esa]&
flQZ rqEgkjs ftEes ykuk |
Hkkjr dh le`í laL—fr]
cPpks vc gS rqEgsa cpkuk |

flQZ yaxksVh tSlh /kksrh]
eu esa ysdj LoIu lqgkuk |
cquuk pkgk Fkk ckiw us]
bl Hkkjr dk rkuk&ckuk |

ckiw ds lkjs lius vc]&
[khap /kjk ij rqeus ykuk |
Hkkjr dh le`í laL—fr]
cPpks vc gS rqEgsa cpkuk |
118
Hkkjr eka ds ykt oL= rd]
ywV jgs gSa fey dj lkjs |
gkFk cka/k ge ns[k jgs gSa]
buds gj djrc Vfd;kjs |

pV  djus dh  uk gS lhek ]
[kkrs gSa i'kq rd dk nkuk |
Hkkjr dh le`í & laL—fr]
cPpks vc gS rqEgsa cpkuk |



119
         ekuo lsok
ekuo lsok esa fut eu dks]
gj le; lnk rS;kj j[kks |
;g vU; fdlh ds dke vk;s]
;g lksp lnk gj ckj j[kks |

thou gS pUn  cgkjksa dk]&
bu pUn cgkjksa dks ysdj  |
vkuUn mBkvks thus  dk]
thoUr gj ?kड़h dks thdj |

gj iy gj lsok esa rRij]
ru]eu]/ku]ifjokj djks |
ekuo lsok esa fut eu dks]
gj le; lnk rS;kj j[kks |
120
dqN thrs thou cnrj lk]
budks rqe thuk fl[kykvks |
tks Hkksx jgs gSa udZ  ;gka]
,d >yd LoxZ dh fn[kykvks |

tks nhu nq[kh jkgksa esa feysa]
mudk Hkh rqe lRdkj  djks |
ekuo lsok esa fut eu dks]
gj le; lnk rS;kj j[kks |



121
       uhड़ cuk;k
dgka lh[k dj vkbZ gks rqe]
x`g & fuekZ.k     loS¸;k |
fdruk lqUnj uhड़ cuk dj]
jgrh       gks   xkSj¸;k |

frudk&frudk pqudj rqeus]
dyk&—fr    jp    Mkyh |
lcls Åaph Mky    lqjf{kr]
ml  ij   ;g    yVdkyh |
122
vUnj&ckgj fpduk   djds]
dejs      rhu     ltk, |
NksVs&NksVs xksy   }kj    Hkh]
blesa       dbZ     cuk, |

lqUnj lw[ks   iÙks     ysdj]
rqeus       uhड़    ltk;k |
eu djrk gS  eSa Hkh   jgywa]
ysfdu  igqap   u     ik;k |


123
      vçSy Qwy cuk;k
prqFkZ ekl ds çFke fnol dks]
mYyw     ds    eu   vk;k |
jgs  cukrs   mYyw     gedks]
fnol      gekjk     vk;k |

eSa Hkh vkt    Loa;  ljh[kk]
mYyw        bUgsa    cukÅa |
vius    eksck by ls  >wBs]
dqN       eSlst  fHktokÅa |
124
HkSal orh dks 'eSlst'  Hkstk]
C;qVh  ikyZj         tkvks |
Øhe  cukbZ ,d    mUgksaus]
xksjh     rqe   gks   vkvks |

x/ks jke dks   Hkstk 'eSlst']
lqUnj & ou   esa    tkvks |
ogka   teh  gS vDy?kkl tks]
pj dj      vDy  c<kvks |

'eSlst  Hkstk pwgs   th dks]
ykseड़  &  oS|     iVkvks |
flag & jkt tks [kkrs  xksyh]
[kkdj   dSV       Hkxkvks |
125
fcYyh   dks  Hkstk 'lanslk']
'cUn&Zeqfu' ij    tkvks |
lEeksgu dk ea= lh[k dj ]
eksVs & jSV        iVkvks |

Hkst  lans'ks   mYyw & jktk]
eu gh eu       brjk;s |
ns[kk lUns'ks  ]  Hksts   ij]
fcuk'lS.M'dk cVu  nck;s |
       

        lQyrk&lw=
uUgs cPps lk Hkksykiu]
ysdj rqe eu ds vkaxu esa |
djks çse&o"kkZ es?kksa lh]
/kjk/kke ds bl çkxa.k esa |

dPNi lk dkseyeu j[k]
Åij ls lnk dBksj cuks |
xfreku jgks eNyh tSls]
lkglh ck?k ls vkSj cuks |

lkxj ls lh[kks vkRelkr]
Hkjiwj gykgy ih tkuk |
eksrh vkSj o"kkZ cnys esa]
nqfu;k dks nsrs gh tkuk |

QSyks rks xxu ljh[ks gks]
iwjh /kjrh dks <d Mkyks |
tks feys rqjr çfrnku djks]
vka/kh&ikuh lc cjlkyks |

lsok fu%LokFkZ iou ls yks]
vuojr jgs tks lsok esa |
;gh lksp viuh j[k dj]
gks eu ls jr tulsok esa |

ckaVks tx Hkj dks çdk'k ]
nhid ls Hkko mBkvks rqe |
fufyZIr Hkko ls mft;kjk]
lkjs tx esa cjlkvks rqe |

/kjrh ls ys yks ohr&jkx]
nq%[k nnZ lgu djds thuk |
feyrs gksa nnZ vxj dksbZ]
vkalw galrs&galrs  ihuk |

>jus ls lh[kks lq[k&o"kkZ]
cjlks fur iwjh /kjrh esa |
nq[k Hkjh vxj vk,a ?kfड़;ka]
muesa Hkh ukpks eLrh esa |

pUnk ls ysdj 'khryrk ]
Hkkoksa esa vius Hkj Mkyks |
rkjksa ls lh[kks vfopyrk]
–< jgks tks fu'p; dj Mkyks |

o`{kksa ls cuks mnkjeuk]
ekjsa iRFkj rqe Qy ns nks |
rirh nksigjh vktk, ifFkd]
Nk;k mldks 'khry ns nks |

dks;y leku ehBh cksyh]
vfojy cgus nks ok.kh esa |
'okuksa ls LokfeHkfä ysdj]
Hkj nks tx ds gj çk.kh esa |

;s ea= lQyrk ikus ds]
thou esa tks viuk,xk |
fufyZIr Hkko ls ;g thou]
og viuk lnk fcrk,xk |