मैं भटका, संवेदन - पथ से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
छोड़ा था सच कहना मैंने,
पर सच से तुम नहीं झिझकना |
सर्व - समाज, स्वार्थी होकर,
निज के हित में लगा हुआ है |
ध्यान सभी का, अपने पर है,
जन-हित से,अब हटा हुआ है |
लेकिन तुम निजहित से हटकर,
सब के हित को श्रेष्ठ समझना |
मैं भटका, संवेदन - पथ से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
लेकर कलुषित-मन जीवन में,
सारे सुख हर, भोग रहा है |
पल-पल पर आकर सम्मोहन,
सत्य कथन को रोक रहा है |
कलुषित - वैतरणी से प्रियवर,
स्वंय तैर कर पार निकलना |
मैं भटका, संवेदन - पथ से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
पूर्व - अर्थ, अब अर्थहीन सब,
नैतिकता के, अर्थ नए हैं |
धैर्य और आदर्श बिक रहे,
नए - नए प्रतिमान हुए हैं |
चाटु - कारिता, की नीवों पर,
अपना भवन खड़ा मत करना |
मैं भटका, संवेदन - पथ से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
दम्भ, मोह्, पाखण्ड आज सब,
मिथ्या-चार, नही दिखते हैं |
लंका जैसी, स्वर्णिम नगरी,-
इनके बल पर सब रचते हैं |
पर्णकुटी तुम, इन से हट कर,
अपनी एक, बनाए रखना |
मैं भटका, संवेदन - पथ से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
सुन्दर प्रस्तुति ..
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