गुरुवार, 27 जून 2013

वसीयत

         
मैं   भटका,   संवेदन - पथ  से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |
छोड़ा  था  सच  कहना  मैंने,
पर सच से तुम नहीं झिझकना |

सर्व - समाज,  स्वार्थी    होकर,
निज के हित में लगा हुआ है |
ध्यान सभी का, अपने पर है,
जन-हित से,अब हटा हुआ है |

लेकिन तुम निजहित से हटकर,
सब के हित को श्रेष्ठ समझना |
मैं   भटका,   संवेदन - पथ  से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |

लेकर कलुषित-मन जीवन में,
सारे सुख हर,  भोग रहा है |
पल-पल पर आकर सम्मोहन,
सत्य कथन को रोक रहा है |

कलुषित - वैतरणी से प्रियवर,
स्वंय तैर कर पार निकलना |
मैं   भटका,   संवेदन - पथ  से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |

पूर्व - अर्थ, अब अर्थहीन सब,
नैतिकता  के,  अर्थ  नए हैं |
धैर्य  और  आदर्श   बिक रहे,
नए - नए प्रतिमान हुए हैं |

चाटु -  कारिता,  की  नीवों पर,
अपना भवन खड़ा मत करना |
मैं   भटका,   संवेदन - पथ  से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना |

दम्भ, मोह्, पाखण्ड आज सब,
मिथ्या-चार,   नही  दिखते हैं |
लंका जैसी,    स्वर्णिम नगरी,-
इनके बल पर सब रचते हैं |

पर्णकुटी तुम, इन से हट कर,
अपनी  एक,  बनाए   रखना |
मैं   भटका,   संवेदन - पथ  से,
किन्तु नहीं तुम जरा भटकना | 

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