सोमवार, 12 दिसंबर 2011

गोविन्द  गुरु
वाणी में भर कर राष्ट्रप्रेम,
फड़का बलहीन भुजाओं को |
गोविन्द गुरु ने आग फूंक,
 लावे  से  भरा शिराओं  को |

गिद्दों से जमकर लड़ता था,
मुर्दों की जाकर बस्ती   में |
रक्तों में ज्वाला भरता था,  
बिजली सी भर कर हस्ती में |

सर उंचा करना सिखला कर ,
कर डाला हुंकार कराहों को |

गोविन्द गुरु ने आग फूंक,
 लावे  से  भरा शिराओं  को |

वह उन्हें जगाता फिरता था ,
जो खुली आँख ले सोया था |
पीड़ा को नियति समझा था,
कर्मों के फल में खोया था |

झकझोर उठाया था उनको,
दिखला हर सत्य निगाहों को |

गोविन्द गुरु ने आग फूंक,
 लावे  से  भरा शिराओं  को |

है त्याज्य और क्या ग्राह्य रहे,
उसने आख्यान सुनाए  थे |
क्यों राजनीति का भाग बनें ,
उसने प्राख्यान बताये थे  |

भर दिया शौर्य और शक्ति से ,
सबकी निष्प्राण निगाहों  को |

गोविन्द गुरु ने आग फूंक,
 लावे  से  भरा शिराओं  को |




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