बाल्-दोहे एंव् कतआत
-डा.राज सक्सेना
निर्मल्-निश्छल आंख में,स्वपनों का परिलेख |
कालजयी हो जाएगा, इनका हर अभिलेख |
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शब्द चित्र रचते मगर,शब्द्-जाल से दूर |
शब्दों में शब्दान्वित,निहित अर्थ भरपूर |
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उतर गहराई में मन की,अचेतन कल्पना है ये |
कहें कविता इसे कैसे,विरल परि-कल्पना है ये |
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कठिन पान्डित्यप्रदर्शन,नहीं है बालकविता में |
अहम् के सर्प का दंशन,नहीं है बालकविता में |
ये सपनों का समर्पण है,जो भोली आंख ने देखे,
किसी कविदर्प का दर्शन्,नहीं है बालकविता में |
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जहां तक हम नहीं पहुंचे,वहां तक ये पहुंचते हैं |
हमारे दिल के दर्दों से,नयन इनके छलकते हैं |
हम अपने स्वार्थ कविता मे,न चाहे डाल देते हैं,
ये कविता में अचेतन सी,महक बनकर महकते हैं |
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अलंकारिक नहीं भाषा,न भावों का पुलिन्दा है |
प्रशंसा से परे हैं ये,न इनमें कोई निन्दा है |
सरल भाषा में ये दिलपर,लिखा करते हैं भावों को,
ये पिंजरे में नहीं पलता,खुले नभ का परिन्दा है |
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है निर्मल गंध सी इनमे,जो शब्दों में महकती है |
है भावों की विरल गंगा,जो छन्दों मे छलकती है |
सरलता,सौम्यता का ये,अनूठा एक संगम है-,
मगर कविता में छुप कर एक चिंगारी दहकती है |
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